यूपीए सरकार आम आदमी की सरकार है। सरकार दिन-रात इस आम आदमी के बारे में सोचती रहती है। अच्छी तरह सोचेगी तभी तो उनकी भलाई का कुछ काम करेगी। लेकिन ये बात विपक्षी दल हजम नहीं कर पाते। अब सरकार की नीति का निहितार्थ समझे बिना ही आरोप पर आरोप जड़े जा रहे हैं। सरकार ने सोच-विचार कर ही माननीय सर्वोच्च न्यायालय को यह हलफनामा दिया है कि ग्रामीण क्षेत्रों में 26 रुपये और शहरी इलाकों में 32 रुपये प्रतिदिन खर्च करने वालों को गरीब नहीं माना जा सकता।
थोड़ी पृष्ठभूमि समझनी होगी। दरअसल अन्ना हजारे के बाद उपवासों का दौर चल पड़ा है। नरेन्द्र मोदी हों या फिर शंकरसिंह वाघेला, सबने उपवास के महत्व को समझा है। यहाँ तक कि पाकिस्तान से भी एक प्रतिनिधिमंडल अन्ना को वहां आने का न्यौता देने के लिये रालेगण सिद्धी पहुँच गया।
उपवास की बढ़ती लोकप्रियता से उत्साहित होकर यूपीए सरकार ‘अन्ना हजारे राष्ट्रीय उपवास कार्यक्रम’ की घोषणा करने पर गंभीरता से विचार कर रही है। हालांकि योजना तो उच्च मध्यम और मध्यम वर्ग के लिये ही बनायी गयी थी लेकिन सरकार को ऐसा लगा कि गरीबों को इससे वंचित क्यों रखा जाये। क्या उनको उपवास के फायदे उठाने का हक नहीं होना चाहिये? क्या वे दोयम दर्जे के नागरिक हैं? हमारा संविधान सबको बराबरी का हक देता है।
योजना आयोग का मानना है कि जिस तरह नरेगा पूरे देश में लोकप्रिय हो गयी है, उसी तरह ‘अन्ना हजारे राष्ट्रीय उपवास कार्यक्रम’ का चस्का भी दिनोंदिन बढ़ेगा और वो हिट हो जायेगा। ऐसा होने से शहरी इलाकों के गरीब हर रोज 32 रुपये में और ग्रामीण इलाकों के गरीब रोजाना 26 रुपये के अंदर ही अपना गुजारा आसानी से कर लेंगे। जब कुछ खायेंगे ही नहीं तो खर्च करने की नौबत ही नहीं आयेगी। जिनको ज्यादा भूख लगती है, उन्हें एक वक्त का खाना खाने की इजाजत दी जा सकती है। इससे ऊपर जो भी खर्च करेगा, इसका मतलब वो उपवास नहीं करेगा। ऐसे नाफरमानों और बेशरमों को उन सरकारी योजनाओं का लाभ कैसे दिया जाये जो गरीबों को दी जाती हैं? जो आलोचक यह कह रहे हैं कि हलफनामा तैयार करने वालों को शर्म आनी चाहिये, वे दरअसल सांप्रदायिक ताकतों, पूंजीपति वर्ग और कॉरपोरेट लॉबी के लोग हैं। क्या इन राष्ट्रविरोधी तत्वों ने यह नहीं देखा कि तेंदुलकर समिति ने कितनी मेहनत से यह समझाने की कोशिश की है कि लोग बड़ी आसानी से दूध, दाल, सब्जी, खाद्य तेल, दवा आदि का खर्च 32 और 26 रूपये में निकाल सकते हैं।
क्या फालतू बैठकर शोर मचाने वाले नहीं जानते कि संसद की कैंटीन में भी चाय की कीमत 2 रुपये, वड़ा-सांभर 2 रुपये, मसाला डोसा 6 रुपये और खीर 8 रुपये है। जब संसद की कैंटीन में मिलने वाली शाकाहारी थाली, जिसमें दो सब्जी, दाल, रायता, पापड़, सलाद, रोटी और चावल शामिल है, की कीमत केवल 18 रूपये है तो गरीब को अपनी थाली मैनेज करने में कोई दिक्कत नहीं आ सकती। कोई जरूरी तो नहीं है कि चिकन करी वाली थाली ही खायी जाये जिसकी कीमत 37 रुपये है।
यूपीए सरकार गरीबों का पूरा ख्याल रखती है, तभी तो उसका मानना है कि गरीब लोग जितना कम खायेंगे उतना ही उनको लाभ होगा। वैसे भी आजकल बाजार में हर चीज में मिलावट हो रही है, जिससे पेट में अनेक गड़बडिय़ाँ पैदा हो रही हैं। हमारा आयुर्वेद भी तो यही कहता है कि पाचन अशुद्धि के कारण ही तमाम बीमारियाँ उत्पन्न होती है। और साथ में व्रत और उपवास का तो हमारे धर्मग्रंथों में बहुत गुणगान किया गया है। इसलिये सरकार का विचार है कि जितना कम खाया जाये, उतनी बीमारियां कम लगेगी, और गरीब उतना ही स्वस्थ रहेगा। योजना आयोग ने इन तमाम बातों को ध्यान में रखकर ही तो आंकड़े तैयार किये है।
जोरदार व्यंग्य!!
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