Tuesday 18 October 2011

चिराग तले अंधेरा

रालेगण सिद्धी के 'अपमानित' सरपंच ताल ठोक कर कह रहे हैं कि वे अब जीवन में कभी भी राहुल गांधी से नहीं मिलेंगे। वजह यह है कि उन्‍हें दिल्‍ली बुलाकर भी मिलने का समय नहीं दिया। अरे भई, राहुल भारत के भावी प्रधानमंत्री हैं। उन्‍हें बहुत काम-काज रहता है। समय नहीं मिल सका। इसमें इतना हायतैबा मचाने की कहां जरूरत आ पड़ी।
हो सकता है कि राहुल उस सरपंच की यह परीक्षा ले रहे हों कि वह खुद अन्‍ना हजारे के कथनों का कितना पालन करता है। दरअसल अन्‍ना हजारे ने कुछ सिद्धांत ‘वगैरह’ बना रखे हैं जिनमें अपमान सहना भी शामिल  है।
अन्‍ना खुद भी कई बार कह चुके हैं कि इंसान में अपमान सहने की शक्ति होनी  चाहिये। आज अन्‍ना के गांव का सरपंच ही अन्‍ना के सिद्धांतों को नहीं मान रहा है और कथित अपमान का घूंट पीना उसे जहर पीने जैसा लग रहा है। इसे कहते हैं - चिराग तले अंधेरा।

Sunday 9 October 2011

तू चोर, मैं चोर..सब चोर

जो जैसा देखना चाहता है उसे दुनिया वैसी ही नजर आती है। या यूं कहें कि जो जिसमें डूब जाता है उसे लगता है कि पूरी दुनिया ही उसमें डुबकी लगा रही है। जो दिन-रात ईश्‍वर का नाम जपते हैं, उन्‍हें घट-घट में राम नजर आता है। अन्‍ना के चाहने वालों को लगता है कि मैं भी अन्‍ना, तू भी अन्‍ना, अब तो सारा देश है अन्‍ना। इसी तरह अगर चोर को लगता है कि पूरी दुनिया ही चोर है तो उसकी सोच बिलकुल स्‍वाभाविक ही है। राजस्‍थान के बयानबाजी विशेषज्ञ गृह मंत्री श्री शांति धारीवाल का विचार कि पूरी जनता अब चोर हो गयी है और उसे हर कोई चोर नजर आने लगा है। धारीवाल साहब कहते हैं कि जनता की नजरों में राजनेता चोर है, पुलिस चोर है, व्‍यापारी चोर है, अधिकारी चोर है।
बात सही भी है। जनता को चोरी की आदत पड़ गई है। चोरी अब जनता की रग-रग में समा चुकी है। जनता को ईमानदारी नजर ही नहीं आती। धारीवाल साहब और उनकी पार्टी कितनी ईमानदार है यह पूरी दुनिया जानती है लेकिन भारत की इस मूर्ख जनता का क्‍या करें। उसे तो हर जगह बस चोर ही चोर नजर आ रहे हैं।
इसलिये हो सकता है कि गृह मंत्री महोदय पुलिस को चोर और चोरी पकड़ने के कार्य से मुक्ति दे दें।  अब चोरी रोकने का तो  कोई फायदा ही नहीं है। अगर पुलिस ने गलती से चोर को पकड़ भी लिया तो जनता की नजर में पुलिस चोर है। अगर किसी नामी-गिरामी चोर ने नेकी का रास्‍ता अपना लिया और चोरी से तौबा कर ली तो भी जनता उसे ईमानदारी का प्रमाणपत्र जारी नहीं करेगी क्‍योंकि जनता की नजरों में तो वह अभी भी चोर है। अगर कोई ठेकेदार ईमानदारी से सड़क, भवन, पुल बनाता है तो भी जनता की नजरों में तो वह चोर ही है।
नौकरशाह अगर ईमानदारी और संविधानसम्‍मत तरीके से अपना काम करते हैं, नेताओं के दबाव में फैसले नहीं लेते, जनता की भलाई के लिये सरकारी योजनाओं का क्रियान्‍वयन करते है तो यह सब बेकार है क्‍योंकि जनता की नजरों में तो वे सब चोर है।
सही कहा है- चोर चोरी से जाये, सीनाजोरी से न जाये।

Friday 30 September 2011

पीटने की कला


राजस्थान की पुलिस तो बिलकुल ही निकम्मी निकली। राजस्थान के गृहमंत्री मारे शर्म के  धरती में दबे जा रहे हैं। उनकी तो नाक कटा दी पुलिस ने। न जाने कितनी बैठकें ली होंगी, उच्चाधिकारियों को कितना समझाया होगा लेकिन सब कुछ बेकार गया। पुलिसवाले ठहरे अनपढ़ और जाहिल। पुलिस को जिस काम के लिये बनाया गया है, ये वो काम भी ठीक ढंग से नहीं कर पाते। पुलिस वालों को पीटना भी नहीं आता। मंत्री महोदय का गुस्सा और झुंझलाहट बिलकुल वाजिब है कि अगर पुलिस ‘दुष्ट’ जनता की सुताई नहीं कर सकती तो फिर उन्हें कौन सबक सिखायेगा? क्या ये काम भी चोर-बदमाशों के हवाले कर दिया जाये? जो लोग जनता के पिटने पर इतना हो-हल्ला मचाते हैं, क्या वे नहीं जानते कि आजादी के बाद से हमारी पुलिस जनता को पीटने का काम तो करती आ रही है। शेर को कितने दिन शाकाहारी रखा जा सकता है? इसलिये पुलिस वाले तो डंडा चलाते हुए ही शोभा देते हैं।
पुलिस को कुछ तो शर्म आनी चाहिये। दरअसल ये सब छठे वेतन आयोग का असर है। तनख्वाहें इतनी बढ़ गई है कि मेहनत से जी चुराने लगे है पुलिसवाले। सबकी तोंद निकल रही है। खा-खाकर मोटा रहे हैं। आरामतलबी के आलम में थप्पड़, घूसे और लातें चलाना भी भूल गयी है पुलिस। अरे भई दिल्ली पुलिस से कुछ तो सीखो। योगगुरू रामदेव और उनके चेले-चपाटों की क्या मस्त धुनाई की थी दिल्ली पुलिस ने। सबको नानी याद दिला दी दिल्ली पुलिस के डड़े ने।
पहले की पुलिस पीटने के बुनियादी काम में बहुत माहिर होती थी। कोई रोक-टोक भी तो नहीं थी। अब तो इतनी सारी संस्थाएं बना दी गई हैं खुद पुलिस पर नजर रखने के लिये। लेकिन बात तो तब बनेगी न जब उन सभी संस्थाओं की आंख में धूल झोंककर पुलिस पीटती रहे और जनता पिटती रहे। अब भ्रष्टाचार को ही ले लीजिये। जनता और मीडिया भले ही शोर मचाती रहे, या जेपीसी, सीवीसी और सीबीआई कितनी भी जाँच करती रहे, आदतन भ्रष्ट रास्ता निकाल ही लेता है। 2जी की मिसाल हमारे सामने है।
धारीवाल साहब की यह चाहत बिलकुल सही है कि पुलिस को अपनी खोई हुई ख्याति वापस दिलानी ही पड़ेगी, वरना जनता तो सिर चढऩे लग जायेगी। हो सकता है कि धारीवाल जी पुलिस को पीटने का गुर वापस सिखाने के लिये ब्रिटिश राज के दौर में पुलिस महकमे में काम कर चुके तजुर्बेकार पुलिस अधिकारियों की सहायता ले ले। इसके लिये ब्रिटेन की सरकार से सम्पर्क किया जा सकता है और इच्छुक अंग्रेजों को राजस्थान में एक विशेष सम्मेलन में बुलाया जा सकता है। यह सही है कि इनमें से अधिकांश लोग बहुत बूढ़े हो गये होंगे लेकिन किसी ने सही कहा है कि बंदर कितना भी बूढ़ा क्यों न हो जाये, गुलाची खाना नहीं भूलता। कुछ न कुछ तो हमारे पुलिसवाले सीख ही जायेंगे।

Wednesday 28 September 2011

चिट्ठी आई है


इन दिनों खूब चिट्ठियाँ लिखी जा रही हैं। हर बड़ा शक्स कोई न कोई चिट्ठी लिखने में व्यस्त है। विषय कुछ हो भी सकता है और कुछ नहीं भी। दरअसल अहमियत अब इस बात की नहीं है कि क्या लिखा जाये, बल्कि इस बात की है कि कौन लिख रहा है। दिल्ली में तो राजनेताओं की हैसियत का अंदाज ही इस बात से लगने लगा है कि किसकी चिट्टी ने कितना हंगामा मचाया या कितना प्राइम टाइम खाया।
  इस साल तो चिट्ठियों को जीवनदान मिल गया। बेचारी चिट्ठी फिल्मी गानों और गज़लों तक सिमट गयी थी। आज तो जमाना 4जी स्पेक्ट्रम के युग में प्रवेश कर चुका है। टेलीफोन, मोबाइल और इंटरनेट के जमाने में चिट्ठी लिखना कुछ समय पहले तक गँवारपन माना जाता था। युवाओं की तो बात ही छोड़ो, उनके दादा की पीढ़ी ने भी चिट्ठियों से दूरी बना ली थी। भला हो यूपीए सरकार का, जिसके काल में पत्र लेखन की परम्परा को बढ़ावा दिया जा रहा है। पंडित नेहरू भी अपने जमाने में खूब पत्र लिखा करते थे। सुपुत्री इंदिरा को उनके द्वारा लिखे गये पत्र आज इतिहास की धरोहर बन चुके हैं।
  योग गुरू रामदेव महाराज ने दिल्ली पुलिस के हाथों पिटने से पहले केन्द्र सरकार से खूब पत्राचार किया था। समाजसेवी अन्ना हजारे को भी पत्र लिखने का खूब शौक है। वे अनशन के साथ-साथ चिट्ठी लिखने में भी माहिर हैं। कभी प्रधानमंत्री को, तो कभी कांग्रेस अध्यक्षा को। उनको जवाब भी मिलता है या यूँ कहें कि देना पड़ता है। उनकी चिट्ठी को बार-बार न्यूज चैनल वाले दिखाते हैं ताकि एक तीर से दो शिकार हो जाएं। यह पता चल जाये कि अन्ना ने क्या लिखा है और साथ-साथ आम जनता भी चिट्ठी लिखने की आदत डाल ले। हालांकि अन्ना के आलोचक यह आरोप लगाते रहते हैं कि चिट्ठी की भाषा उनकी नहीं होती। इससे क्या फर्क पड़ता है कि भाषा किसकी हो, आखिर हस्ताक्षर तो अन्ना के नाम से ही होते हैं। अब राजकुमार राहुल को ही ले लीजिये। संसद में लोकपाल बहस में उनका भाषण भले ही किसी ने लिखा हो, लेकिन संसद के रिकार्ड में तो उनका ही नाम दर्ज रहेगा।
  अन्ना ने फिर एक चिट्ठी दाग दी है। वैसे उनकी चिट्ठियाँ किसी मिसाइल से कम तो होती नहीं। महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री पृथ्वीराज को लिखी चिट्ठी में अन्ना ने चेतावनी दी है कि अगर राज्य सरकार ने इस सत्र में मजबूत लोकायुक्त बिल पास नहीं किया गया तो अन्ना एक बार फिर अनशन पर बैठ जाएंगे। अन्ना के साथी प्रशांत भूषण भी कहाँ चुप बैठने वाले हैं। चिट्ठी लेखन में तो वे भी माहिर हैं। वकील जो ठहरे। उन्होंने प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर अप्रत्यक्ष कर विभाग में लोकपाल के तौर पर नियुक्ति के लिए एच. के. शरन और राजेन्द्र प्रकाश के नाम पर आपत्ति जताई है। भूषण का आरोप है कि दोनों अफसरों के खिलाफ भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप हैं, इसलिए वे लोकपाल के पद की गरिमा को ठोस पहुंचायेंगे।
  उधर बहन मायावती भी पत्र लेखन में किसी से कम नहीं हैं। वे कभी जाटों को, कभी गरीब सवर्णों को और कभी मुसलमानों को आरक्षण देने की मांग प्रधानमंत्री को चिट्ठी लिखकर ही करती हैं। चाहे बहन मायावती हों, या भाई नरेन्द्र मोदी, प्रधानमंत्री को चिट्ठी लिखना इन सबको अच्छा लगता है। जो चिट्ठी लिखने का समय नहीं निकाल पाते या फिर जिनकी चिट्ठियाँ मशहूर नहीं हो पाती वे भी तमाम छोटी-बड़ी चिट्ठियों पर नज़र रखते हैं।
  इन दिनों वित्त मंत्रालय के एक अधिकारी की चिट्ठी केन्द्र सरकार के गले की फांस बनी हुई है। चिट्ठी ने प्रणब दा को कभी न्यूयॉर्क तो कभी दिल्ली की दौड़ लगवा दी। चिट्ठी पर सफाई देने के लिये चिदम्बरम साहब को श्रीमती सोनिया गांधी के दरबार में हाजिर होना पड़ा। कांग्रेस को यह समझ में नहीं आ रहा है कि एक अदने से अफसर की चिट्ठी को इतना महत्व देने की जरूरत क्या है्? अरे भई चिट्ठी लिख देने से कोई दोषी थोड़ी हो जाता है।
  चिट्ठियों से जुड़ी एक समस्या यह भी सामने आ रही है कि हर कोई उसे पढऩा चाहता है। जेपीसी की बैठक में विपक्षी दल के सदस्यों ने जमकर हंगामा किया। उनकी आपत्ति इस बात को लेकर थी कि चिदंबरम साहब से संबंधित वित्त मंत्रालय की चिट्ठीजो पीएमओ को लिखी गई थी, वह जेपीसी के सामने क्यों नहीं पेश की गई। विपक्षी दलों को ऐसा लगता है कि अगर चिट्ठी जानबूझकर छुपाई गयी तो यह उनके विशेषाधिकार का हनन है।
  चिट्ठी सीजन में एक और चिट्ठी ने सियासत गरमा दी है। फरवरी 2006 में तत्कालीन दूरसंचार मंत्री दयानिधि मारन ने प्रधानमंत्री को लिखे पत्र में जिन बातों का जिक्र किया, उसकी खूब चर्चा हो रही है।
  प्रणब दा की नई चिट्ठी ने तो मामला सुलझाने की बजाय और उलझा दिया है। मुखर्जी साहब ने प्रधानमंत्री और श्रीमती सोनिया जी को चिट्ठी लिखकर यह कहा है कि जो चिट्ठी वित्त मंत्रालय से पीएमओ को भेजी गयी थी कि वह पीएमओ और कैबिनेट सचिवालय के साथ-साथ कई मंत्रालयों की राय जानने के बाद लिखी गयी थी।
  बेचारी सरकार करे तो क्या करे? कुछ सूझ ही नहीं रहा है। 2001 के दाम में 2008 का स्पेक्ट्रम बांटकर जनता को सस्ता मोबाइल थमाये तो विपक्ष हाय तौबा मचाता है और भ्रष्टाचार के झूठे आरोप लगाता है। चिट्ठी-पत्री को बढ़ावा दे तो विपक्ष हंगामा करता है। ऐसे में सरकार के पास एक ही विकल्प बचा है कि वह अपने तमाम   मंत्रियों को यह निर्देश दे कि इससे पहले कि कोई नई चिट्ठी मीडिया या आरटीआई कार्यकर्ताओं के हाथ लगे, उसका स्पष्टीकरण पहले से ही तैयार कर लिया जाये।

Tuesday 27 September 2011

प्यार की गंगा बहाते चलो




दुनिया में हर इंसान को किसी न किसी से बेपनाह मुहब्बत होती है। यह जरूरी नहीं कि जिससे मुहब्बत की जाये वह भी इंसान ही हो। वह कोई भी निराकार, अदृश्य, मायावी, भौतिक और यहाँ तक कि निर्जीव चीज भी हो सकती है। सही कहा है-दिल तो है दिल, दिल का एतबार क्या कीजे। आ गया जो किसी पे प्यार क्या कीजे। जरा नज़र दौड़ाए कि किस को किस से प्यार है तो पता चलेगा कि अगर उनसे वो चीज छीन ली जाये तो उनका कितना बुरा हाल होगा। प्यार करने वाले उन चीजों को हासिल करने के लिये कुछ भी कर सकतें हैं।
आधुनिक लौह पुरूष आडवाणी जी को प्रधानमंत्री पद और रथयात्राओं से। बहन मायावती जी को मूर्तियों से, चाहे वे हाथियों की हों या फिर स्वयं अपनी। योग गुरू रामदेव को कालेधन के खिलाफ बोलने और पत्रकार वार्ता करने से। रेड्डी बंधुओं को अवैध खनन से।
सच्चे कांग्रेसी नेताओं को श्रीमती सोनिया गांधी और राजकुमार राहुल का गुणगान करने से। दिगविजय सिंह जी को विवादित बयान देने से। बीसीसीआई को आईपीएल से। सुधीन्द्र कुलकर्णी को स्टिंग ऑपरेशन करने से। राजस्थान के मंत्री महिपाल मदेरणा जी को सीडी से। न्यूज चैनलों को टीआरपी रेटिंग से। राहुल गांधी को लिखा-लिखाया भाषण पढऩे से। नरेन्द्र मोदी को छह करोड़ गुजरातियों से, और आजकल सद्भावना यात्राओं से। अमिताभ बच्चन को कर्मकांडी पूजा-अर्चनाओं से। भाजपा अध्यक्ष नितिन गडकरी जी को चटपटे व स्वादिष्ट व्यंजनों से। अमरसिंह जी को बॉलीवुड बालाओं से।  सलमान खान को अपने कंवारेपन से।
सुश्री जयललिता जी को स्वर्णाभूषणों से। लालू यादव जी को चारे से। भारतीय क्रिकेट खिलाडिय़ों को विज्ञापनों से। सचिन तेंदुलकर को व्यक्तिगत रिकॉर्ड से। यूपीए सरकार को 2001 के भाव में 2008 का स्पेक्ट्रम बांटकर गरीबों का भला करने से। अलगाववादियों को अफजल गुरू से। प्रशांत भूषण को जनमतसंग्रह से। सांसदों को अपने विशेषाधिकारों से।  अन्ना एंड पार्टी को जनलोकपाल बिल से। नारायण दत्त तिवारी को अपने डीएनए से। सीबीआई को चिदम्बरम जी से। और भाजपा को सत्ता से बहुत प्यार है।
प्यार-मुहब्बत के इस रोमांचक माहौल में अगर कांग्रेस को भष्टाचार से प्रेम है तो उसने कौनसा अपराध कर दिया है। प्यार किया तो डरना क्या? प्रधानमंत्री जी मुहब्बत की इस जंग में पूरा देश आपके साथ है। हम मध्यावधि चुनाव किसी कीमत पर नहीं होने देंगे।

Thursday 22 September 2011

गरीबों की हितैषी सरकार


यूपीए सरकार आम आदमी की सरकार है। सरकार दिन-रात इस आम आदमी के बारे में सोचती रहती है। अच्छी तरह सोचेगी तभी तो उनकी भलाई का कुछ काम करेगी। लेकिन ये बात विपक्षी दल हजम नहीं कर पाते। अब सरकार की नीति का निहितार्थ समझे बिना ही आरोप पर आरोप जड़े जा रहे हैं। सरकार ने सोच-विचार कर ही माननीय सर्वोच्च न्यायालय को यह हलफनामा दिया है कि ग्रामीण क्षेत्रों में 26 रुपये और शहरी इलाकों में 32 रुपये प्रतिदिन खर्च करने वालों को गरीब नहीं माना जा सकता।
थोड़ी पृष्ठभूमि समझनी होगी। दरअसल अन्ना हजारे के बाद उपवासों का दौर चल पड़ा है। नरेन्द्र मोदी हों या फिर शंकरसिंह वाघेला, सबने उपवास के महत्व को समझा है। यहाँ तक कि पाकिस्तान से भी एक प्रतिनिधिमंडल अन्ना को वहां आने का न्यौता देने के लिये रालेगण सिद्धी पहुँच गया।
उपवास की बढ़ती लोकप्रियता से उत्साहित होकर यूपीए सरकार ‘अन्ना हजारे राष्ट्रीय उपवास कार्यक्रम’ की घोषणा करने पर गंभीरता से विचार कर रही है। हालांकि योजना तो उच्च मध्यम और मध्यम वर्ग के लिये ही बनायी गयी थी लेकिन सरकार को ऐसा लगा कि गरीबों को इससे वंचित क्यों रखा जाये। क्या उनको उपवास के फायदे उठाने का हक नहीं होना चाहिये? क्या वे दोयम दर्जे के नागरिक हैं? हमारा संविधान सबको बराबरी का हक देता है।
योजना आयोग का मानना है कि जिस तरह नरेगा पूरे देश में लोकप्रिय हो गयी है, उसी तरह ‘अन्ना हजारे राष्ट्रीय उपवास कार्यक्रम’ का चस्का भी दिनोंदिन बढ़ेगा और वो हिट हो जायेगा। ऐसा होने से शहरी इलाकों के गरीब हर रोज 32 रुपये में और ग्रामीण इलाकों के गरीब रोजाना 26 रुपये के अंदर ही अपना गुजारा आसानी से कर लेंगे। जब कुछ खायेंगे ही नहीं तो खर्च करने की नौबत ही नहीं आयेगी। जिनको ज्यादा भूख लगती है, उन्हें एक वक्त का खाना खाने की इजाजत दी जा सकती है। इससे ऊपर जो भी खर्च करेगा, इसका मतलब वो उपवास नहीं करेगा। ऐसे नाफरमानों और बेशरमों को उन सरकारी योजनाओं का लाभ कैसे दिया जाये जो गरीबों को दी जाती हैं? जो आलोचक यह कह रहे हैं कि हलफनामा तैयार करने वालों को शर्म आनी चाहिये, वे दरअसल सांप्रदायिक ताकतों, पूंजीपति वर्ग और कॉरपोरेट लॉबी के लोग हैं। क्या इन राष्ट्रविरोधी तत्वों ने यह नहीं देखा कि तेंदुलकर समिति ने कितनी मेहनत से यह समझाने की कोशिश की है कि लोग बड़ी आसानी से  दूध, दाल, सब्जी, खाद्य तेल, दवा आदि का खर्च 32 और 26 रूपये में निकाल सकते हैं।
क्या फालतू बैठकर शोर मचाने वाले नहीं जानते कि संसद की कैंटीन में भी चाय की कीमत 2 रुपये, वड़ा-सांभर 2 रुपये, मसाला डोसा 6 रुपये और खीर 8 रुपये है।  जब संसद की कैंटीन में मिलने वाली शाकाहारी थाली, जिसमें दो सब्जी, दाल, रायता, पापड़, सलाद, रोटी और चावल शामिल है, की कीमत केवल 18 रूपये है तो गरीब को अपनी थाली मैनेज करने में कोई दिक्कत नहीं आ सकती। कोई जरूरी तो नहीं है कि चिकन करी वाली थाली ही खायी जाये जिसकी कीमत 37 रुपये है।
यूपीए सरकार गरीबों का पूरा ख्याल रखती है, तभी तो उसका मानना है कि गरीब लोग जितना कम खायेंगे उतना ही उनको लाभ होगा। वैसे भी आजकल बाजार में हर चीज में मिलावट हो रही है, जिससे पेट में अनेक गड़बडिय़ाँ पैदा हो रही हैं। हमारा आयुर्वेद भी तो यही कहता है कि पाचन अशुद्धि के कारण ही तमाम बीमारियाँ उत्पन्न होती है। और साथ में व्रत और उपवास का तो हमारे धर्मग्रंथों में बहुत गुणगान किया गया है। इसलिये सरकार का विचार है कि जितना कम खाया जाये, उतनी बीमारियां कम लगेगी, और गरीब उतना ही स्वस्थ रहेगा। योजना आयोग ने इन तमाम बातों को ध्यान में रखकर ही तो आंकड़े तैयार किये है।

बिन लाल बत्ती सब सून


सारी खुदाई एक तरफ, और लाल बत्ती एक तरफ। लाल बत्ती की माया ही ऐसी है। एक बार किसी को मिल जाये तो छोडऩे की इच्छा ही नहीं होता। किसी कारण वश छिन जाये तो वही हालत होती है जैसे जल बिना मछली की। उससे भी बदतर। हमारे जो सांसद लोकसभा का चुनाव जीत जाते हैं, मंत्री बनकर लाल बत्ती का असली सुख भोगने की कोशिश में जुट जाते हैं। जो हार जाते हैं या जीतने की कुव्वत ही नहीं रखते, मन तो उनका भी लाल बत्ती के लिये ही धडक़ता है। उनके जीवन में अधूरेपन को भरने के लिये लाल बत्ती की व्यवस्था जरूरी हो जाती है, इसलिये राज्य सभा का मार्ग तलाशते हैं।
राज्यों में भी लाल बत्ती की महिमा अपरम्पार है। जो विधायक चुनाव जीत जाते हैं, तो मंत्री बनना उनकी पहली पसंद होता है। हारने वाले कद्दावर नेता बिना लाल बत्ती अपने जीवन की कल्पना ही नहीं कर पाते और निगम-बोर्ड के अध्यक्ष बनकर लाल बत्ती की जुगाड़ कर ही लेते हैं। लाल बत्ती में कितने गुण हैं, उसकी परख आम आदमी को थोड़ी है। राजनेता ही जानते हैं कि लाल बत्ती जिस पर भी मेहरबान हो जाये तो उसकी सात पुश्तों का उद्धार हो जाता है। जीवन इतना उमंग, उल्लास, और आनंद से भर जाता है कि स्वर्ग और मोक्ष जैसी छोटी-मोटी चीजों की जरूरत ही महसूस नहीं होती।
अब अगर किसी मंत्री से लाल बत्ती छीन ली जाये तो सोचिये उसका क्या हश्र हो। उसका तो जीवन ही नरक बन जाये। मछली की तरह तडफ़ड़ाने लग जाये। जब से लालूयादव जी की कार से लाल बत्ती गायब हुई है उनके आभामंडल का तो तेज ही गायब हो गया है। कांग्रेस के पक्ष में कांग्रेसजनों ने जितने बयान नहीं दिये होंगे, उतने तो लालू जी ने दे दिये हैं। लेकिन लाल बत्ती अभी भी पास नहीं फटक रही है।
 कुछ ऐसा ही हाल राजस्थान के एक मंत्री महोदय अमीन साहब का हुआ।वक्फ और राजस्व मंत्री थे श्री अमीन खां। लाल बत्ती की पूरी छत्रछाया थी। कुछ ऐसा बोल दिया जिसके बाद सोचने लगे होंगे कि काश जुबान ही नहीं होती। राष्ट्रपति महोदया की शान के खिलाफ बोलने के जुर्म में लाल बत्ती छीन ली गई। जो कुछ कहा वो भले ही अमीन साहब की नजरों में तथ्यात्मक रूप से सही रहा हो लेकिन राजनीतिक शिष्टाचार के विरूद्ध था।
बेचारे स्पष्टीकरण देते थक गये लेकिन हाईकमान सख्त था। अल्पसंख्यक होने का भी कोई फायदा नहीं मिला। इधर-उधर की दौड़ लगाई लेकिन कमान से तीर तो निकल चुका था। बेचारे अमीन साहब बिना लाल बत्ती नारकीय जीवन जी रहे थे कि राष्ट्रपति महोदया का राजस्थान में आना हुआ। पहुँच गये उनकी शरण में। माफी मांगने। दण्डवत करके सफाई देने लगे। कहा कि इरादे सही था लेकिन अल्फाज गलत। राष्ट्रपति महोदया तो निर्मल स्वभाव की हैं। करूणाभाव भी है उनमें। किसी बात को दिल में नहीं रखती। माफ कर दिया। अब देखते हैं कि हाईकमान क्या निर्णय लेती हैं? यह दुआ करते हैं कि श्री अमीन खां की कुंडली में जो राजयोग है, उस पर लगा ग्रहण दूर हो जाये।
लेकिन राजस्थान के मंत्रियों के तो वैसे भी बुरे दिन चल रहे हैं। गोपालगढ़ की घटना के बाद सुना है कि श्रीमती सोनिया गांधी गृहमंत्री श्री शांति धारीवाल से नाराज चल रही हैं। कांग्रेस के राज में अल्पसंख्यकों की पुलिस फायरिंग में मौत। लगता है कि एक और लाल बत्ती गुल होगी।