Wednesday 28 September 2011

चिट्ठी आई है


इन दिनों खूब चिट्ठियाँ लिखी जा रही हैं। हर बड़ा शक्स कोई न कोई चिट्ठी लिखने में व्यस्त है। विषय कुछ हो भी सकता है और कुछ नहीं भी। दरअसल अहमियत अब इस बात की नहीं है कि क्या लिखा जाये, बल्कि इस बात की है कि कौन लिख रहा है। दिल्ली में तो राजनेताओं की हैसियत का अंदाज ही इस बात से लगने लगा है कि किसकी चिट्टी ने कितना हंगामा मचाया या कितना प्राइम टाइम खाया।
  इस साल तो चिट्ठियों को जीवनदान मिल गया। बेचारी चिट्ठी फिल्मी गानों और गज़लों तक सिमट गयी थी। आज तो जमाना 4जी स्पेक्ट्रम के युग में प्रवेश कर चुका है। टेलीफोन, मोबाइल और इंटरनेट के जमाने में चिट्ठी लिखना कुछ समय पहले तक गँवारपन माना जाता था। युवाओं की तो बात ही छोड़ो, उनके दादा की पीढ़ी ने भी चिट्ठियों से दूरी बना ली थी। भला हो यूपीए सरकार का, जिसके काल में पत्र लेखन की परम्परा को बढ़ावा दिया जा रहा है। पंडित नेहरू भी अपने जमाने में खूब पत्र लिखा करते थे। सुपुत्री इंदिरा को उनके द्वारा लिखे गये पत्र आज इतिहास की धरोहर बन चुके हैं।
  योग गुरू रामदेव महाराज ने दिल्ली पुलिस के हाथों पिटने से पहले केन्द्र सरकार से खूब पत्राचार किया था। समाजसेवी अन्ना हजारे को भी पत्र लिखने का खूब शौक है। वे अनशन के साथ-साथ चिट्ठी लिखने में भी माहिर हैं। कभी प्रधानमंत्री को, तो कभी कांग्रेस अध्यक्षा को। उनको जवाब भी मिलता है या यूँ कहें कि देना पड़ता है। उनकी चिट्ठी को बार-बार न्यूज चैनल वाले दिखाते हैं ताकि एक तीर से दो शिकार हो जाएं। यह पता चल जाये कि अन्ना ने क्या लिखा है और साथ-साथ आम जनता भी चिट्ठी लिखने की आदत डाल ले। हालांकि अन्ना के आलोचक यह आरोप लगाते रहते हैं कि चिट्ठी की भाषा उनकी नहीं होती। इससे क्या फर्क पड़ता है कि भाषा किसकी हो, आखिर हस्ताक्षर तो अन्ना के नाम से ही होते हैं। अब राजकुमार राहुल को ही ले लीजिये। संसद में लोकपाल बहस में उनका भाषण भले ही किसी ने लिखा हो, लेकिन संसद के रिकार्ड में तो उनका ही नाम दर्ज रहेगा।
  अन्ना ने फिर एक चिट्ठी दाग दी है। वैसे उनकी चिट्ठियाँ किसी मिसाइल से कम तो होती नहीं। महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री पृथ्वीराज को लिखी चिट्ठी में अन्ना ने चेतावनी दी है कि अगर राज्य सरकार ने इस सत्र में मजबूत लोकायुक्त बिल पास नहीं किया गया तो अन्ना एक बार फिर अनशन पर बैठ जाएंगे। अन्ना के साथी प्रशांत भूषण भी कहाँ चुप बैठने वाले हैं। चिट्ठी लेखन में तो वे भी माहिर हैं। वकील जो ठहरे। उन्होंने प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर अप्रत्यक्ष कर विभाग में लोकपाल के तौर पर नियुक्ति के लिए एच. के. शरन और राजेन्द्र प्रकाश के नाम पर आपत्ति जताई है। भूषण का आरोप है कि दोनों अफसरों के खिलाफ भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप हैं, इसलिए वे लोकपाल के पद की गरिमा को ठोस पहुंचायेंगे।
  उधर बहन मायावती भी पत्र लेखन में किसी से कम नहीं हैं। वे कभी जाटों को, कभी गरीब सवर्णों को और कभी मुसलमानों को आरक्षण देने की मांग प्रधानमंत्री को चिट्ठी लिखकर ही करती हैं। चाहे बहन मायावती हों, या भाई नरेन्द्र मोदी, प्रधानमंत्री को चिट्ठी लिखना इन सबको अच्छा लगता है। जो चिट्ठी लिखने का समय नहीं निकाल पाते या फिर जिनकी चिट्ठियाँ मशहूर नहीं हो पाती वे भी तमाम छोटी-बड़ी चिट्ठियों पर नज़र रखते हैं।
  इन दिनों वित्त मंत्रालय के एक अधिकारी की चिट्ठी केन्द्र सरकार के गले की फांस बनी हुई है। चिट्ठी ने प्रणब दा को कभी न्यूयॉर्क तो कभी दिल्ली की दौड़ लगवा दी। चिट्ठी पर सफाई देने के लिये चिदम्बरम साहब को श्रीमती सोनिया गांधी के दरबार में हाजिर होना पड़ा। कांग्रेस को यह समझ में नहीं आ रहा है कि एक अदने से अफसर की चिट्ठी को इतना महत्व देने की जरूरत क्या है्? अरे भई चिट्ठी लिख देने से कोई दोषी थोड़ी हो जाता है।
  चिट्ठियों से जुड़ी एक समस्या यह भी सामने आ रही है कि हर कोई उसे पढऩा चाहता है। जेपीसी की बैठक में विपक्षी दल के सदस्यों ने जमकर हंगामा किया। उनकी आपत्ति इस बात को लेकर थी कि चिदंबरम साहब से संबंधित वित्त मंत्रालय की चिट्ठीजो पीएमओ को लिखी गई थी, वह जेपीसी के सामने क्यों नहीं पेश की गई। विपक्षी दलों को ऐसा लगता है कि अगर चिट्ठी जानबूझकर छुपाई गयी तो यह उनके विशेषाधिकार का हनन है।
  चिट्ठी सीजन में एक और चिट्ठी ने सियासत गरमा दी है। फरवरी 2006 में तत्कालीन दूरसंचार मंत्री दयानिधि मारन ने प्रधानमंत्री को लिखे पत्र में जिन बातों का जिक्र किया, उसकी खूब चर्चा हो रही है।
  प्रणब दा की नई चिट्ठी ने तो मामला सुलझाने की बजाय और उलझा दिया है। मुखर्जी साहब ने प्रधानमंत्री और श्रीमती सोनिया जी को चिट्ठी लिखकर यह कहा है कि जो चिट्ठी वित्त मंत्रालय से पीएमओ को भेजी गयी थी कि वह पीएमओ और कैबिनेट सचिवालय के साथ-साथ कई मंत्रालयों की राय जानने के बाद लिखी गयी थी।
  बेचारी सरकार करे तो क्या करे? कुछ सूझ ही नहीं रहा है। 2001 के दाम में 2008 का स्पेक्ट्रम बांटकर जनता को सस्ता मोबाइल थमाये तो विपक्ष हाय तौबा मचाता है और भ्रष्टाचार के झूठे आरोप लगाता है। चिट्ठी-पत्री को बढ़ावा दे तो विपक्ष हंगामा करता है। ऐसे में सरकार के पास एक ही विकल्प बचा है कि वह अपने तमाम   मंत्रियों को यह निर्देश दे कि इससे पहले कि कोई नई चिट्ठी मीडिया या आरटीआई कार्यकर्ताओं के हाथ लगे, उसका स्पष्टीकरण पहले से ही तैयार कर लिया जाये।

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