Friday 30 September 2011

पीटने की कला


राजस्थान की पुलिस तो बिलकुल ही निकम्मी निकली। राजस्थान के गृहमंत्री मारे शर्म के  धरती में दबे जा रहे हैं। उनकी तो नाक कटा दी पुलिस ने। न जाने कितनी बैठकें ली होंगी, उच्चाधिकारियों को कितना समझाया होगा लेकिन सब कुछ बेकार गया। पुलिसवाले ठहरे अनपढ़ और जाहिल। पुलिस को जिस काम के लिये बनाया गया है, ये वो काम भी ठीक ढंग से नहीं कर पाते। पुलिस वालों को पीटना भी नहीं आता। मंत्री महोदय का गुस्सा और झुंझलाहट बिलकुल वाजिब है कि अगर पुलिस ‘दुष्ट’ जनता की सुताई नहीं कर सकती तो फिर उन्हें कौन सबक सिखायेगा? क्या ये काम भी चोर-बदमाशों के हवाले कर दिया जाये? जो लोग जनता के पिटने पर इतना हो-हल्ला मचाते हैं, क्या वे नहीं जानते कि आजादी के बाद से हमारी पुलिस जनता को पीटने का काम तो करती आ रही है। शेर को कितने दिन शाकाहारी रखा जा सकता है? इसलिये पुलिस वाले तो डंडा चलाते हुए ही शोभा देते हैं।
पुलिस को कुछ तो शर्म आनी चाहिये। दरअसल ये सब छठे वेतन आयोग का असर है। तनख्वाहें इतनी बढ़ गई है कि मेहनत से जी चुराने लगे है पुलिसवाले। सबकी तोंद निकल रही है। खा-खाकर मोटा रहे हैं। आरामतलबी के आलम में थप्पड़, घूसे और लातें चलाना भी भूल गयी है पुलिस। अरे भई दिल्ली पुलिस से कुछ तो सीखो। योगगुरू रामदेव और उनके चेले-चपाटों की क्या मस्त धुनाई की थी दिल्ली पुलिस ने। सबको नानी याद दिला दी दिल्ली पुलिस के डड़े ने।
पहले की पुलिस पीटने के बुनियादी काम में बहुत माहिर होती थी। कोई रोक-टोक भी तो नहीं थी। अब तो इतनी सारी संस्थाएं बना दी गई हैं खुद पुलिस पर नजर रखने के लिये। लेकिन बात तो तब बनेगी न जब उन सभी संस्थाओं की आंख में धूल झोंककर पुलिस पीटती रहे और जनता पिटती रहे। अब भ्रष्टाचार को ही ले लीजिये। जनता और मीडिया भले ही शोर मचाती रहे, या जेपीसी, सीवीसी और सीबीआई कितनी भी जाँच करती रहे, आदतन भ्रष्ट रास्ता निकाल ही लेता है। 2जी की मिसाल हमारे सामने है।
धारीवाल साहब की यह चाहत बिलकुल सही है कि पुलिस को अपनी खोई हुई ख्याति वापस दिलानी ही पड़ेगी, वरना जनता तो सिर चढऩे लग जायेगी। हो सकता है कि धारीवाल जी पुलिस को पीटने का गुर वापस सिखाने के लिये ब्रिटिश राज के दौर में पुलिस महकमे में काम कर चुके तजुर्बेकार पुलिस अधिकारियों की सहायता ले ले। इसके लिये ब्रिटेन की सरकार से सम्पर्क किया जा सकता है और इच्छुक अंग्रेजों को राजस्थान में एक विशेष सम्मेलन में बुलाया जा सकता है। यह सही है कि इनमें से अधिकांश लोग बहुत बूढ़े हो गये होंगे लेकिन किसी ने सही कहा है कि बंदर कितना भी बूढ़ा क्यों न हो जाये, गुलाची खाना नहीं भूलता। कुछ न कुछ तो हमारे पुलिसवाले सीख ही जायेंगे।

Wednesday 28 September 2011

चिट्ठी आई है


इन दिनों खूब चिट्ठियाँ लिखी जा रही हैं। हर बड़ा शक्स कोई न कोई चिट्ठी लिखने में व्यस्त है। विषय कुछ हो भी सकता है और कुछ नहीं भी। दरअसल अहमियत अब इस बात की नहीं है कि क्या लिखा जाये, बल्कि इस बात की है कि कौन लिख रहा है। दिल्ली में तो राजनेताओं की हैसियत का अंदाज ही इस बात से लगने लगा है कि किसकी चिट्टी ने कितना हंगामा मचाया या कितना प्राइम टाइम खाया।
  इस साल तो चिट्ठियों को जीवनदान मिल गया। बेचारी चिट्ठी फिल्मी गानों और गज़लों तक सिमट गयी थी। आज तो जमाना 4जी स्पेक्ट्रम के युग में प्रवेश कर चुका है। टेलीफोन, मोबाइल और इंटरनेट के जमाने में चिट्ठी लिखना कुछ समय पहले तक गँवारपन माना जाता था। युवाओं की तो बात ही छोड़ो, उनके दादा की पीढ़ी ने भी चिट्ठियों से दूरी बना ली थी। भला हो यूपीए सरकार का, जिसके काल में पत्र लेखन की परम्परा को बढ़ावा दिया जा रहा है। पंडित नेहरू भी अपने जमाने में खूब पत्र लिखा करते थे। सुपुत्री इंदिरा को उनके द्वारा लिखे गये पत्र आज इतिहास की धरोहर बन चुके हैं।
  योग गुरू रामदेव महाराज ने दिल्ली पुलिस के हाथों पिटने से पहले केन्द्र सरकार से खूब पत्राचार किया था। समाजसेवी अन्ना हजारे को भी पत्र लिखने का खूब शौक है। वे अनशन के साथ-साथ चिट्ठी लिखने में भी माहिर हैं। कभी प्रधानमंत्री को, तो कभी कांग्रेस अध्यक्षा को। उनको जवाब भी मिलता है या यूँ कहें कि देना पड़ता है। उनकी चिट्ठी को बार-बार न्यूज चैनल वाले दिखाते हैं ताकि एक तीर से दो शिकार हो जाएं। यह पता चल जाये कि अन्ना ने क्या लिखा है और साथ-साथ आम जनता भी चिट्ठी लिखने की आदत डाल ले। हालांकि अन्ना के आलोचक यह आरोप लगाते रहते हैं कि चिट्ठी की भाषा उनकी नहीं होती। इससे क्या फर्क पड़ता है कि भाषा किसकी हो, आखिर हस्ताक्षर तो अन्ना के नाम से ही होते हैं। अब राजकुमार राहुल को ही ले लीजिये। संसद में लोकपाल बहस में उनका भाषण भले ही किसी ने लिखा हो, लेकिन संसद के रिकार्ड में तो उनका ही नाम दर्ज रहेगा।
  अन्ना ने फिर एक चिट्ठी दाग दी है। वैसे उनकी चिट्ठियाँ किसी मिसाइल से कम तो होती नहीं। महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री पृथ्वीराज को लिखी चिट्ठी में अन्ना ने चेतावनी दी है कि अगर राज्य सरकार ने इस सत्र में मजबूत लोकायुक्त बिल पास नहीं किया गया तो अन्ना एक बार फिर अनशन पर बैठ जाएंगे। अन्ना के साथी प्रशांत भूषण भी कहाँ चुप बैठने वाले हैं। चिट्ठी लेखन में तो वे भी माहिर हैं। वकील जो ठहरे। उन्होंने प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर अप्रत्यक्ष कर विभाग में लोकपाल के तौर पर नियुक्ति के लिए एच. के. शरन और राजेन्द्र प्रकाश के नाम पर आपत्ति जताई है। भूषण का आरोप है कि दोनों अफसरों के खिलाफ भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप हैं, इसलिए वे लोकपाल के पद की गरिमा को ठोस पहुंचायेंगे।
  उधर बहन मायावती भी पत्र लेखन में किसी से कम नहीं हैं। वे कभी जाटों को, कभी गरीब सवर्णों को और कभी मुसलमानों को आरक्षण देने की मांग प्रधानमंत्री को चिट्ठी लिखकर ही करती हैं। चाहे बहन मायावती हों, या भाई नरेन्द्र मोदी, प्रधानमंत्री को चिट्ठी लिखना इन सबको अच्छा लगता है। जो चिट्ठी लिखने का समय नहीं निकाल पाते या फिर जिनकी चिट्ठियाँ मशहूर नहीं हो पाती वे भी तमाम छोटी-बड़ी चिट्ठियों पर नज़र रखते हैं।
  इन दिनों वित्त मंत्रालय के एक अधिकारी की चिट्ठी केन्द्र सरकार के गले की फांस बनी हुई है। चिट्ठी ने प्रणब दा को कभी न्यूयॉर्क तो कभी दिल्ली की दौड़ लगवा दी। चिट्ठी पर सफाई देने के लिये चिदम्बरम साहब को श्रीमती सोनिया गांधी के दरबार में हाजिर होना पड़ा। कांग्रेस को यह समझ में नहीं आ रहा है कि एक अदने से अफसर की चिट्ठी को इतना महत्व देने की जरूरत क्या है्? अरे भई चिट्ठी लिख देने से कोई दोषी थोड़ी हो जाता है।
  चिट्ठियों से जुड़ी एक समस्या यह भी सामने आ रही है कि हर कोई उसे पढऩा चाहता है। जेपीसी की बैठक में विपक्षी दल के सदस्यों ने जमकर हंगामा किया। उनकी आपत्ति इस बात को लेकर थी कि चिदंबरम साहब से संबंधित वित्त मंत्रालय की चिट्ठीजो पीएमओ को लिखी गई थी, वह जेपीसी के सामने क्यों नहीं पेश की गई। विपक्षी दलों को ऐसा लगता है कि अगर चिट्ठी जानबूझकर छुपाई गयी तो यह उनके विशेषाधिकार का हनन है।
  चिट्ठी सीजन में एक और चिट्ठी ने सियासत गरमा दी है। फरवरी 2006 में तत्कालीन दूरसंचार मंत्री दयानिधि मारन ने प्रधानमंत्री को लिखे पत्र में जिन बातों का जिक्र किया, उसकी खूब चर्चा हो रही है।
  प्रणब दा की नई चिट्ठी ने तो मामला सुलझाने की बजाय और उलझा दिया है। मुखर्जी साहब ने प्रधानमंत्री और श्रीमती सोनिया जी को चिट्ठी लिखकर यह कहा है कि जो चिट्ठी वित्त मंत्रालय से पीएमओ को भेजी गयी थी कि वह पीएमओ और कैबिनेट सचिवालय के साथ-साथ कई मंत्रालयों की राय जानने के बाद लिखी गयी थी।
  बेचारी सरकार करे तो क्या करे? कुछ सूझ ही नहीं रहा है। 2001 के दाम में 2008 का स्पेक्ट्रम बांटकर जनता को सस्ता मोबाइल थमाये तो विपक्ष हाय तौबा मचाता है और भ्रष्टाचार के झूठे आरोप लगाता है। चिट्ठी-पत्री को बढ़ावा दे तो विपक्ष हंगामा करता है। ऐसे में सरकार के पास एक ही विकल्प बचा है कि वह अपने तमाम   मंत्रियों को यह निर्देश दे कि इससे पहले कि कोई नई चिट्ठी मीडिया या आरटीआई कार्यकर्ताओं के हाथ लगे, उसका स्पष्टीकरण पहले से ही तैयार कर लिया जाये।

Tuesday 27 September 2011

प्यार की गंगा बहाते चलो




दुनिया में हर इंसान को किसी न किसी से बेपनाह मुहब्बत होती है। यह जरूरी नहीं कि जिससे मुहब्बत की जाये वह भी इंसान ही हो। वह कोई भी निराकार, अदृश्य, मायावी, भौतिक और यहाँ तक कि निर्जीव चीज भी हो सकती है। सही कहा है-दिल तो है दिल, दिल का एतबार क्या कीजे। आ गया जो किसी पे प्यार क्या कीजे। जरा नज़र दौड़ाए कि किस को किस से प्यार है तो पता चलेगा कि अगर उनसे वो चीज छीन ली जाये तो उनका कितना बुरा हाल होगा। प्यार करने वाले उन चीजों को हासिल करने के लिये कुछ भी कर सकतें हैं।
आधुनिक लौह पुरूष आडवाणी जी को प्रधानमंत्री पद और रथयात्राओं से। बहन मायावती जी को मूर्तियों से, चाहे वे हाथियों की हों या फिर स्वयं अपनी। योग गुरू रामदेव को कालेधन के खिलाफ बोलने और पत्रकार वार्ता करने से। रेड्डी बंधुओं को अवैध खनन से।
सच्चे कांग्रेसी नेताओं को श्रीमती सोनिया गांधी और राजकुमार राहुल का गुणगान करने से। दिगविजय सिंह जी को विवादित बयान देने से। बीसीसीआई को आईपीएल से। सुधीन्द्र कुलकर्णी को स्टिंग ऑपरेशन करने से। राजस्थान के मंत्री महिपाल मदेरणा जी को सीडी से। न्यूज चैनलों को टीआरपी रेटिंग से। राहुल गांधी को लिखा-लिखाया भाषण पढऩे से। नरेन्द्र मोदी को छह करोड़ गुजरातियों से, और आजकल सद्भावना यात्राओं से। अमिताभ बच्चन को कर्मकांडी पूजा-अर्चनाओं से। भाजपा अध्यक्ष नितिन गडकरी जी को चटपटे व स्वादिष्ट व्यंजनों से। अमरसिंह जी को बॉलीवुड बालाओं से।  सलमान खान को अपने कंवारेपन से।
सुश्री जयललिता जी को स्वर्णाभूषणों से। लालू यादव जी को चारे से। भारतीय क्रिकेट खिलाडिय़ों को विज्ञापनों से। सचिन तेंदुलकर को व्यक्तिगत रिकॉर्ड से। यूपीए सरकार को 2001 के भाव में 2008 का स्पेक्ट्रम बांटकर गरीबों का भला करने से। अलगाववादियों को अफजल गुरू से। प्रशांत भूषण को जनमतसंग्रह से। सांसदों को अपने विशेषाधिकारों से।  अन्ना एंड पार्टी को जनलोकपाल बिल से। नारायण दत्त तिवारी को अपने डीएनए से। सीबीआई को चिदम्बरम जी से। और भाजपा को सत्ता से बहुत प्यार है।
प्यार-मुहब्बत के इस रोमांचक माहौल में अगर कांग्रेस को भष्टाचार से प्रेम है तो उसने कौनसा अपराध कर दिया है। प्यार किया तो डरना क्या? प्रधानमंत्री जी मुहब्बत की इस जंग में पूरा देश आपके साथ है। हम मध्यावधि चुनाव किसी कीमत पर नहीं होने देंगे।

Thursday 22 September 2011

गरीबों की हितैषी सरकार


यूपीए सरकार आम आदमी की सरकार है। सरकार दिन-रात इस आम आदमी के बारे में सोचती रहती है। अच्छी तरह सोचेगी तभी तो उनकी भलाई का कुछ काम करेगी। लेकिन ये बात विपक्षी दल हजम नहीं कर पाते। अब सरकार की नीति का निहितार्थ समझे बिना ही आरोप पर आरोप जड़े जा रहे हैं। सरकार ने सोच-विचार कर ही माननीय सर्वोच्च न्यायालय को यह हलफनामा दिया है कि ग्रामीण क्षेत्रों में 26 रुपये और शहरी इलाकों में 32 रुपये प्रतिदिन खर्च करने वालों को गरीब नहीं माना जा सकता।
थोड़ी पृष्ठभूमि समझनी होगी। दरअसल अन्ना हजारे के बाद उपवासों का दौर चल पड़ा है। नरेन्द्र मोदी हों या फिर शंकरसिंह वाघेला, सबने उपवास के महत्व को समझा है। यहाँ तक कि पाकिस्तान से भी एक प्रतिनिधिमंडल अन्ना को वहां आने का न्यौता देने के लिये रालेगण सिद्धी पहुँच गया।
उपवास की बढ़ती लोकप्रियता से उत्साहित होकर यूपीए सरकार ‘अन्ना हजारे राष्ट्रीय उपवास कार्यक्रम’ की घोषणा करने पर गंभीरता से विचार कर रही है। हालांकि योजना तो उच्च मध्यम और मध्यम वर्ग के लिये ही बनायी गयी थी लेकिन सरकार को ऐसा लगा कि गरीबों को इससे वंचित क्यों रखा जाये। क्या उनको उपवास के फायदे उठाने का हक नहीं होना चाहिये? क्या वे दोयम दर्जे के नागरिक हैं? हमारा संविधान सबको बराबरी का हक देता है।
योजना आयोग का मानना है कि जिस तरह नरेगा पूरे देश में लोकप्रिय हो गयी है, उसी तरह ‘अन्ना हजारे राष्ट्रीय उपवास कार्यक्रम’ का चस्का भी दिनोंदिन बढ़ेगा और वो हिट हो जायेगा। ऐसा होने से शहरी इलाकों के गरीब हर रोज 32 रुपये में और ग्रामीण इलाकों के गरीब रोजाना 26 रुपये के अंदर ही अपना गुजारा आसानी से कर लेंगे। जब कुछ खायेंगे ही नहीं तो खर्च करने की नौबत ही नहीं आयेगी। जिनको ज्यादा भूख लगती है, उन्हें एक वक्त का खाना खाने की इजाजत दी जा सकती है। इससे ऊपर जो भी खर्च करेगा, इसका मतलब वो उपवास नहीं करेगा। ऐसे नाफरमानों और बेशरमों को उन सरकारी योजनाओं का लाभ कैसे दिया जाये जो गरीबों को दी जाती हैं? जो आलोचक यह कह रहे हैं कि हलफनामा तैयार करने वालों को शर्म आनी चाहिये, वे दरअसल सांप्रदायिक ताकतों, पूंजीपति वर्ग और कॉरपोरेट लॉबी के लोग हैं। क्या इन राष्ट्रविरोधी तत्वों ने यह नहीं देखा कि तेंदुलकर समिति ने कितनी मेहनत से यह समझाने की कोशिश की है कि लोग बड़ी आसानी से  दूध, दाल, सब्जी, खाद्य तेल, दवा आदि का खर्च 32 और 26 रूपये में निकाल सकते हैं।
क्या फालतू बैठकर शोर मचाने वाले नहीं जानते कि संसद की कैंटीन में भी चाय की कीमत 2 रुपये, वड़ा-सांभर 2 रुपये, मसाला डोसा 6 रुपये और खीर 8 रुपये है।  जब संसद की कैंटीन में मिलने वाली शाकाहारी थाली, जिसमें दो सब्जी, दाल, रायता, पापड़, सलाद, रोटी और चावल शामिल है, की कीमत केवल 18 रूपये है तो गरीब को अपनी थाली मैनेज करने में कोई दिक्कत नहीं आ सकती। कोई जरूरी तो नहीं है कि चिकन करी वाली थाली ही खायी जाये जिसकी कीमत 37 रुपये है।
यूपीए सरकार गरीबों का पूरा ख्याल रखती है, तभी तो उसका मानना है कि गरीब लोग जितना कम खायेंगे उतना ही उनको लाभ होगा। वैसे भी आजकल बाजार में हर चीज में मिलावट हो रही है, जिससे पेट में अनेक गड़बडिय़ाँ पैदा हो रही हैं। हमारा आयुर्वेद भी तो यही कहता है कि पाचन अशुद्धि के कारण ही तमाम बीमारियाँ उत्पन्न होती है। और साथ में व्रत और उपवास का तो हमारे धर्मग्रंथों में बहुत गुणगान किया गया है। इसलिये सरकार का विचार है कि जितना कम खाया जाये, उतनी बीमारियां कम लगेगी, और गरीब उतना ही स्वस्थ रहेगा। योजना आयोग ने इन तमाम बातों को ध्यान में रखकर ही तो आंकड़े तैयार किये है।

बिन लाल बत्ती सब सून


सारी खुदाई एक तरफ, और लाल बत्ती एक तरफ। लाल बत्ती की माया ही ऐसी है। एक बार किसी को मिल जाये तो छोडऩे की इच्छा ही नहीं होता। किसी कारण वश छिन जाये तो वही हालत होती है जैसे जल बिना मछली की। उससे भी बदतर। हमारे जो सांसद लोकसभा का चुनाव जीत जाते हैं, मंत्री बनकर लाल बत्ती का असली सुख भोगने की कोशिश में जुट जाते हैं। जो हार जाते हैं या जीतने की कुव्वत ही नहीं रखते, मन तो उनका भी लाल बत्ती के लिये ही धडक़ता है। उनके जीवन में अधूरेपन को भरने के लिये लाल बत्ती की व्यवस्था जरूरी हो जाती है, इसलिये राज्य सभा का मार्ग तलाशते हैं।
राज्यों में भी लाल बत्ती की महिमा अपरम्पार है। जो विधायक चुनाव जीत जाते हैं, तो मंत्री बनना उनकी पहली पसंद होता है। हारने वाले कद्दावर नेता बिना लाल बत्ती अपने जीवन की कल्पना ही नहीं कर पाते और निगम-बोर्ड के अध्यक्ष बनकर लाल बत्ती की जुगाड़ कर ही लेते हैं। लाल बत्ती में कितने गुण हैं, उसकी परख आम आदमी को थोड़ी है। राजनेता ही जानते हैं कि लाल बत्ती जिस पर भी मेहरबान हो जाये तो उसकी सात पुश्तों का उद्धार हो जाता है। जीवन इतना उमंग, उल्लास, और आनंद से भर जाता है कि स्वर्ग और मोक्ष जैसी छोटी-मोटी चीजों की जरूरत ही महसूस नहीं होती।
अब अगर किसी मंत्री से लाल बत्ती छीन ली जाये तो सोचिये उसका क्या हश्र हो। उसका तो जीवन ही नरक बन जाये। मछली की तरह तडफ़ड़ाने लग जाये। जब से लालूयादव जी की कार से लाल बत्ती गायब हुई है उनके आभामंडल का तो तेज ही गायब हो गया है। कांग्रेस के पक्ष में कांग्रेसजनों ने जितने बयान नहीं दिये होंगे, उतने तो लालू जी ने दे दिये हैं। लेकिन लाल बत्ती अभी भी पास नहीं फटक रही है।
 कुछ ऐसा ही हाल राजस्थान के एक मंत्री महोदय अमीन साहब का हुआ।वक्फ और राजस्व मंत्री थे श्री अमीन खां। लाल बत्ती की पूरी छत्रछाया थी। कुछ ऐसा बोल दिया जिसके बाद सोचने लगे होंगे कि काश जुबान ही नहीं होती। राष्ट्रपति महोदया की शान के खिलाफ बोलने के जुर्म में लाल बत्ती छीन ली गई। जो कुछ कहा वो भले ही अमीन साहब की नजरों में तथ्यात्मक रूप से सही रहा हो लेकिन राजनीतिक शिष्टाचार के विरूद्ध था।
बेचारे स्पष्टीकरण देते थक गये लेकिन हाईकमान सख्त था। अल्पसंख्यक होने का भी कोई फायदा नहीं मिला। इधर-उधर की दौड़ लगाई लेकिन कमान से तीर तो निकल चुका था। बेचारे अमीन साहब बिना लाल बत्ती नारकीय जीवन जी रहे थे कि राष्ट्रपति महोदया का राजस्थान में आना हुआ। पहुँच गये उनकी शरण में। माफी मांगने। दण्डवत करके सफाई देने लगे। कहा कि इरादे सही था लेकिन अल्फाज गलत। राष्ट्रपति महोदया तो निर्मल स्वभाव की हैं। करूणाभाव भी है उनमें। किसी बात को दिल में नहीं रखती। माफ कर दिया। अब देखते हैं कि हाईकमान क्या निर्णय लेती हैं? यह दुआ करते हैं कि श्री अमीन खां की कुंडली में जो राजयोग है, उस पर लगा ग्रहण दूर हो जाये।
लेकिन राजस्थान के मंत्रियों के तो वैसे भी बुरे दिन चल रहे हैं। गोपालगढ़ की घटना के बाद सुना है कि श्रीमती सोनिया गांधी गृहमंत्री श्री शांति धारीवाल से नाराज चल रही हैं। कांग्रेस के राज में अल्पसंख्यकों की पुलिस फायरिंग में मौत। लगता है कि एक और लाल बत्ती गुल होगी।

Tuesday 20 September 2011

नमकहराम से परेशान उद्धव


उद्धव ठाकरे की पीड़ा समझी जा सकती है। चचेरे भाई राज ने रंग में भंग डाल दी है। तभी तो ‘नमकहराम’ राज को कोस रहे हैं जिनके कारण उद्धव के मुख्यमंत्री बनने का ख्वाब केवल ख्वाब ही रह गया।
लेकिन चचेरा भाई भी क्या करता? मजबूर था। राज ने अपनी पूरी जवानी अपने ताया बाल ठाकरे की सियासत को चमकाने में लगा दी। सोचा था कि ताजपोशी तो उन्ही की होगी। लेकिन बाल ठाकरे ने घृतराष्ट्र का पुत्र मोह दिखा ही दिया। राज को किनारे कर दिया। उद्धव ने बिना कुछ मेहनत किये दोनो हाथों से लड्डू बटोरने चाहे। लेकिन राज ने कोई कच्ची गोलियां थोड़ी खेली थी। ताया से सियासत के सारे गुर सीख लिये थे। बना ली नई पार्टी और कर दिया उद्धव का सारा काम बिगाड़ा। जो कांग्रेस नहीं कर पायी वो राज ने कर दिया।
उद्धव के जले पर नमक छिडक़ने का कोई मौका राज नहीं गंवाते हैं। उद्धव भैया को फोटोग्राफी का बहुत शौक है। लेकिन राज उन्हें चैन से फोटोग्राफी भी नहीं करने दे रहे हैं। बड़े भाई को निशाना बनाते हुए कह दिया कि ‘कुछ लोग तो दूसरे राज्यों में जाकर जानवरों के फोटो निकालते हैं, अच्छा तो यह होता कि यह लोग मुंबई में घूमकर यहां के गढ्ढों के फोटो खींचते।’
भडक़ गये उद्धव। भडक़ना ही था। गद्दार की इतनी हिम्मत। नमकहराम ने जिस थाली में खाया, उसी में छेद कर दिया। जानवर से भी गया बीता निकला। मन में तो ऐसे भाव आना स्वाभाविक है। लेकिन जुबान पर कुछ तो कंट्रोल होना चाहिये। आखिर उद्धव शिवसेना के कार्यकारी अध्यक्ष भी हैं।
लेकिन उद्धव को कौन समझाये? अगर महाराष्ट्र कोई राजशाही होता तो पिता के बाद पुत्र को राजगद्दी मिल भी जाती। ये तो लोकशाही है। यहां तो वोटों का कारोबार होता है। जिसने ज्यादा बटोरे, वो या तो सिंहासन पर बैठता है या फिर किसी का सिंहासन छीन लेता है।

Sunday 18 September 2011

दिल्ली अभी दूर है


क्या कोई बिल्ली सौ-सौ चूहे खाकर हज नहीं जा सकती। क्यों नहीं जा सकती? खुदा अपने बंदों को कभी अपना नाम लेने से नहीं रोकता। नरेन्द्र मोदी गलत रास्ता छोडक़र सही रास्ते पर आने की इच्छा जता रहे हैं।  स्वागत है उनका। भारतीय संस्कृति तो सुबह के भूले को शाम घर आने की पूरी छूट देती है। तो फिर दिक्कत कहां है?
दो हजार मुसलमानों की मौत के जिम्मेदार नरेन्द्र भाई प्रायश्चित तो करना चाहते हैं लेकिन अपनी शर्तों पर। जैसी उनकी इच्छा। उपवास कर रहें हैं लेकिन पूरे धूम-धड़ाके के साथ। उपवास कम, दरबार ज्यादा लग रहा है। कोई बात नहीं। अपने अनशन पर ‘हिन्दू हृदय सम्राट’ को चार-पाँच करोड़ खर्च करने का अधिकार तो मिलना ही चाहिये। चापलूसों और मीडिया की पूरी फौज के सामने अपनी इच्छाएं जनता के सामने रख रहे हैं। इससे भी कोई परहेज नहीं। तथाकथित ‘दूसरे गांधी’ अन्ना भी तो आजकल यही करने लगे हैं। मोदी के मंच पर उनका गुणगान करने के लिये टोपीधारी मुसलमान मौजूद हैं। औरतें भी और आदमी भी। इस आरोप को भी खारिज किया जा सकता है कि मंच पर विराजमान मुसलमान भाड़े के मुसलमान हैं। अगर वे भाड़े के टट्टू नहीं भी हैं तो भी पानी में रहकर मगरमछ से बैर भला कौन ले।
लेकिन मोदी के इरादों में खोट है। मोदी की नजर प्रधानमंत्री पद पर है। इसमे कोई शक नहीं है कि हिन्दुओं में एक वर्ग ऐसा है जिसका दिल मोदी के लिये धडक़ता है। वो वर्ग मोदी को दिल्ली की गद्दी पर बिठाना चाहता है। इसके लिये अगर क्षमायाचना का आडंबर भी करना पड़े तो कोई गम नहीं। मोदी और उनके समर्थक इतनी जल्दी क्यों भूल गये कि उनके राजनीतिक गुरू आडवाणी तो बाबरी मस्जिद विध्वंस के अप्रत्यक्ष दोषी थे। उनके इस अपराध ने वाजपेयी को प्रधानमंत्री बना दिया था। इंडिया शाइनिंग का भोंडा नारा जब जीत ना दिला पाया तो जिन्ना को धर्मनिरपेक्ष बताने के लिये पाकिस्तान तक चले गये। लेकिन प्रधानमंत्री पद हाथ नहीं आ पाया। आज तक पीएम इन वेटिंग ही बने हुए हैं। मोदी के लिये तो दिक्कत आडवाणी से दोगुनी हैं।
इस फाइव स्टार उपवास के दौरान अमरीकी कांग्रेस की एक समिति की रिपोर्ट तो कांग्रेस के लिये मन-मांगी मुराद की तरह है। मीडिया ने जिस बेवकूफी से मोदी को प्रधानमंत्री पद का दावेदार बताना शुरू कर दिया है, मुसलमान भाजपा से और दूर हो रहा है।

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Wednesday 14 September 2011

रास आया उपवास


उपवास एक बार फिर फैशन प्रतीक बन गया है। नामी-गिरानी लोगों ने उपवास रखकर उसकी लोकप्रियता में इजाफा कर दिया है। जहां देखो कोई न कोई उपवास रख रहा है। खबरिया चैनलों के लिये उपवास की खबरें ‘ब्रेकिंग न्यूज’ बन रही हैं। अगर यही सिलसिला जारी रहा तो आने वाले दिनों में बहुत से लोग उपवास करते नजर आयेंगे।
अन्ना 12 दिन उपवास कर शिक्षित मध्यमवर्ग के घर-घर में अपनी खास जगह बना चुके हैं। अब गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी 17 से 19 नवंबर तक उपवास रखेंगे। मोदी सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय से खुशी से फूले नहीं समा रहे हैं। क्या पता उपवास के माध्यम से मोदी गुजरात दंगों का दाग धोने की कोशिश कर रहे हैं। तभी तो मोदी के आलोचक यह कह रहे हैं कि अगर उनका उपवास गुजरात में सांप्रदायिक सौहार्द और एकता के लिए है तो इसका मतलब गुजरात में सौहार्द बिगड़ा हुआ है। कांग्रेस पार्टी भी उपवास की पवित्रता को बरकरार रखना चाहती है और मोदी के उपवास का बदला उपवास से ही देने जा रही है। गुजरात में मोदी के प्रतिद्वंद्वी शंकरलाल वघेला के नेतृत्व में कांग्रेस नेता साबरमती आश्रम में तीन दिन का उपवास करेंगे। यानी फुल मीडिया तमाशा।
आत्मशुद्धि के लिये या उदर शुद्धि के लिये या फिर मीडिया में अपनी छवि शुद्धि के लिये, उपवास के कुछ फायदे तो सबके सामने हैं। सबसे पहला फायदा तो उपवास रखने वाले को है। उसका हाजमा ठीक हो जाता है और बैठे-बिठाये ढ़ेर सारी टीवी कवरेज मिल जाती है। और उपवास का सबसे ज्यादा फायदा देश को है। भारत की 121 करोड़ आबादी का बड़ा हिस्सा गरीबी  और कुपोषण से ग्रस्त रहता हैं। यदि हमारा मध्यम वर्ग और अभिजात्य वर्ग ज्यादा से ज्यादा उपवास रखें तो ऐसी संभावना बन सकती है कि गरीब जनता को दो वक्त की रोटी नसीब हो जाये।
आम आदमी की पैरोकार यूपीए सरकार को इस मौके का लाभ उठाना चाहिये और उपवास की एक राष्ट्रीयव्यापी योजना बनानी चाहिये। सरकार चाहे तो सोनिया गांधी के नेतृत्व वाली राष्ट्रीय सलाहकार परिषद से एक ड्राफ्ट तैयार करवा सकती है। चूंकि उपवास को फिर से लोकप्रिय बनाने का श्रेय अन्ना हजारे को है तो इस योजना का नाम ‘अन्ना हजारे राष्ट्रीय उपवास कार्यक्रम’ रखा जा सकता है। क्या पता इससे अन्ना भी खुश हो जायें और आगे सरकार को परेशान करने के बजाय पूरे देश की जनता को उपवास के गुणों की जानकारी देने की यात्रा पर निकल पडें।
इस कार्यक्रम की शुरूआत महात्मा गांधी के जन्मदिन पर की जा सकती है और इस बात पर तो अन्ना को भी आपत्ति नहीं होगी।
अन्ना के आंदोलन को समर्थन करने वाली बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष श्री नितिन गडकरी यदि उपवास कर लेते तो  उनको अपना मोटापा कम करने के लिये ऑपरेशन न कराना पड़ता।

Tuesday 13 September 2011

अन्ना की खतरनाक सीख


कितनी विडंबना है, हमारे लोकतंत्र की? जनतंत्र और जनशक्ति को मजबूत करने का श्रेय लेने वाला एक गैर-राजनीतिक शक्स उस राजनेता की तारीफ कर रहा है जिसने देश में लोकतंत्र के मार्ग में रोड़े अटकाये थे।
अन्ना हजारे चाहते हैं कि कांग्रेस अध्यक्षा श्रीमती सोनिया गांधी भी अपनी सास और पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी जैसी बनें। यानी जो कसर बची है, उसे भी पूरा कर लिया जाये। लगता है कि अन्ना पर किरन बेदी के विचारों का काफी प्रभाव है। किरन ने रामलीला मैदान पर बने मंच से कहा कहा था कि अन्ना इज इंडिया, इंडिया इज अन्ना। कुछ ऐसी ही गलतफहमी इंदिरा गांधी के चापलूसों को हो गयी थी तभी तो देवकांत बरूआ ने कह दिया था कि इंडिया इज इंदिरा, इंदिरा इज इंडिया।
क्या अन्ना जानते हैं कि भारत की तमाम लोकतांत्रिक संस्थाओं को बनाने और पोषित करने में जितनी अहम भूमिका इंदिरा के पिता जवाहरलाल ने निभाई थी, उससे ज्यादा कुख्यात भूमिका इंदिरा ने इन संस्थाओं की तोड़-फोड़ करने में निभाई। क्या अन्ना को यह नहीं पता कि राज्यपाल की संस्था का खतरनाक ढ़ंग से राजनीतिकरण इंदिरा गांधी ने किया, वैसा दूसरा उदाहरण नहीं मिल सकता। इंदिरा के शासनकाल में लोकतांत्रिक रूप से चुनी गई विपक्षी दल की अनेक सरकारों को मनमाने ढ़ंग से बर्खास्त किया गया। अन्ना हजारे बड़ी जल्दी भूल गये कि इंदिरा के अनेक कदम संवैधानिक मर्यादाओं का खुलेआम उल्लंघन करते थे। यह तो अन्ना को कोई भी बात सकता था कि हाईकमान संस्कृति को बढ़ावा देकर इंदिरा ने क्षेत्रीय नेतृत्व को पूरी तरह खत्म कर दिया। काबिल व्यक्तियों की घोर अनदेखी कर उन्होंने नाकाबिल लेकिन चापलूस लोगों को ऊंचे पदों पर बिठाया। अन्ना यह तो मानते होंगे कि अरूणा राय नाकाबिल नहीं हैं। 
 क्या अन्ना को उनके साथियों ने नहीं बताया कि अगर इंदिरा गांधी या उनके जैसी शक्सियत प्रधानमंत्री होती तो वो आज जननायक नहीं होते और इस तरह सरकार के खिलाफ विषवमन करने से पहले कई बार सोचते।
कम से कम श्रीमती सोनिया गांधी को इस बात का तो धन्यवाद देना चाहिये कि उन्होंने इंदिरा गांधी जैसा दमनात्मक रवैया अख्तियार नहीं किया, अन्यथा 16 अगस्त की तो नौबत ही नहीं आती। अन्ना को अप्रेल में ही ऐसा सबक सिखाया जाता कि उनकी टीम दोबारा अन्ना का साथ देने से पहले लाख बार सोचती।
अन्ना अगर जस्टिस संतोष हेगड़े से ही बातचीत कर लेते तो उन्हें पता चल जाता कि आपातकाल में किस तरह इंदिरा विरोधियों को जेलों में ठूंसा जाता था। उस दौरान जस्टिस हेगड़े अनेक राजनेताओं को गैर-कानूनी कैद से छुड़वाने के लिये कानूनी संघर्ष कर चुके हैं। वकील और एक्टिविस्ट प्रशांत भूषण भी अन्ना को बता देते कि आपातकाल में किस प्रकार मूल अधिकारों की धज्जियां उडाय़ी गयी।
अगर सोनिया गांधी, इंदिरा गांधी के नक्शे कदम पल चल पड़ी तो अन्ना और उनकी टीम को भगवान ही बचाये।

Saturday 10 September 2011

रथ यात्रा की तैयारी


  पुराने संस्कार जल्दी नहीं मरते। विज्ञान के बलबूते इंसान ने साइकिल से शुरू कर हवाईजहाज तक का सफर कर लिया। लेकिन भाजपा के कद्दावर नेता लालकृष्ण आडवाणी को रथ बहुत पसंद हैं। कार चाहे किसी भी देसी-विदेशी ब्रांड की क्यों न हो, लेकिन आडवाणी रथ में बैठते ही बहुत ही कम्फरटेबल महसूस करते हैं। रथ पर विराजमान होते ही उनके  दिमाग को भरपूर तरोताजगी मिलती है। अगर उनका बस चले तो संसद की कार्यवाही में भाग लेने भी रथ में बैठकर जायें।
  रथ को घोड़ों द्वारा खीचा जाता है लेकिन आज के समय घोड़े पालना व्यावहारिक  नहीं रहा। अगर एक राजनीतिक दल अपने नेता की इच्छापूर्ति के लिये घोड़े रखने लग जाये तो कितनी जगहंसायी होगी और विरोधी क्या-क्या बातें बनायेंगे। इसलिये अपने सलाहकारों की बात मानते हुए आडवाणी घोड़ों के स्थान पर जीप का इस्तेमाल कर लेते हैं।
  समय-समय पर आडवाणी रथ लेकर निकलते भी हैं। दो-चार किलोमीटर के छोटे सफर पर नहीं, बल्कि हजारों किलोमीटर की लम्बी यात्राओं पर। आम इंसान हो तो बस या कार में ज्यादा सफर नहीं कर पाता और उसे भारीपन महसूस होने लगता है। लेकिन आडवाणी का रथ जैसे-जैसे आगे बढ़ता है, वे ज्यादा सहज होने लगते हैं और भरपूर उर्जा महसूस करने लगते हैं। काफी समय से उन्होंने अपना रथ बाहर नहीं निकाला। नौकर-चाकर भी दबी जुबान में कहने लगे हैं कि अगर रथ का इस्तेमाल ही नहीं करना तो उसे बेचते क्यों नहीं। रोज-रोज सफाई करनी आसानी थोड़ी है।
  आडवाणी के रथ प्रेम ने उनसे कई यात्राएं करवायी। लेकिन राम मंदिर के लिये की गई उनकी पहली रथ यात्रा जितनी सफलता बाद की यात्राएं नहीं प्राप्त कर पायी। आडवाणी को लगता है कि एक बार फिर रथ निकालने का वक्त आ गया है। सात साल से विपक्ष में बैठकर आडवाणी का उत्साह और उमंग बहुत कम हो गया है और उसे वापिस हासिल करने के लिये रथ यात्रा से बेहतर तरीका क्या होगा। अब रथ यात्रा का कोई मुद्दा भी तो होना चाहिये। तो मुद्दा होगा भ्रष्टाचार।
  इन दिनों पूरे देश में भ्रष्टाचार विरोधी माहौल पहले से ही बना हुआ है। अन्ना हजारे भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई का प्रतीक बनकर उभरे हैं। आलोचक कह रहे हैं कि आडवाणी इस माहौल को भुनाना चाहते हैं। ऐसा लगता है कि देर से सही लेकिन आडवाणी को यह याद तो आया कि यूपीए सरकार के भ्रष्टाचार का विरोध तो विपक्ष को करना चाहिये था। और ये काम अन्ना एंड पार्टी ने करके सारी मलाई लूट ली।
खैर, भाजपा में नेताओं की दूसरी कतार भी आडवाणी की प्रस्तावित रथ यात्रा से चिंतित है। उनका भयभीत होना भी लाजमी है कि अगर रथ यात्रा सफल हो गई तो 84 वर्षीय आडवाणी पार्टी में फिर से प्रधानमंत्री पद की दावेदारी जता सकते हैं। सच क्या है ये तो पीएम इन वेटिंग आडवाणी ही बता सकते हैं।
रथ यात्रा तो तय हो गई लेकिन यह तय करना बाकी है कि आडवाणी का सारथी कौन होगा। जनार्दन रेड्डी या येदीयुरप्पा या फिर बंगारू लक्ष्मण।

Friday 9 September 2011

ऐरन को ब्रह्मज्ञान


बरेली से कांग्रेस सांसद प्रवीन सिंह ऐरन का नाम भला कौन भूल सकता है। अन्ना आंदोलन के दौरान उन्होंने अपनी व्यक्तिगत हैसियत में जनलोकपाल बिल को मसौदा समिति के पास भेजा था। उनके इस कदम से खबरिया चैनलों को लोकपाल मुद्दे पर विश्लेषण करने के लिये एक और विशेषज्ञ मिल गया था। इस दौरान खूब प्राइम टाइम बटोरा था ऐरन ने। वे रातों-रात सेलिब्रिटी सांसद बने गये। लेकिन जब ओम पुरी ने उनकी पूरी जमात को गंवार और अनपढ़ कह दिया तो उनके  भीतर का सांसद जाग उठा। उन्होंने ओम पुरी, किरण बेदी, अरविंद केजरीवाल और प्रशांत भूषण के खिलाफ विशेषाधिकार हनन का नोटिस दे दिया।
अब ऐरन को लग रहा है कि विशेषाधिकार नोटिस के जरिये टीम अन्ना जनता की नजरों में हीरो बनना चाहते हैं। कल तक अपने ‘खास अधिकारों’ को मिली चुनौती से आक्रोशित और आहत ऐरन को अचानक यह ब्रह्मज्ञान कैसे हो गया कि टीम अन्ना के सदस्य अपने खिलाफ नोटिस की आड़ में सस्ती राजनीति कर कांग्रेस को नुकसान पहुंचा रहे है़। विशेषाधिकार नोटिस वापस लेकर अब प्रवीण ऐरन का इरादा टीम अन्ना के दुष्ट सदस्यों का ‘असली चेहरा’ जनता के सामने बेनकाब करने का है। बहुत नेक विचार है।
अचरज इस बात का है कि ऐरन को यह ज्ञान दिल्ली बम धमाकों के ठीक अगले दिन हुआ। कहीं ऐरन को यह डर तो नहीं लगा कि जनता उनसे यह पूछेगी कि जब आप अपने खिलाफ हुए शाब्दिक हमले से इतने आग बबूला हो सकते हो तो आम आदमी के खिलाफ हो रहे जानलेवा आतंकी हमलों पर आपका खून पानी क्यों हो जाता है।
जनता ऐरन से यह पूछ सकती है कि जब आपकी सरकार के मंत्री श्री सुबोध कांत यह कह रहे हैं कि जनता अब बम विस्फोटों की अभ्यस्त हो गई है, तो सांसदों को भी जनता की खरी-खोटी सुनने की आदत डाल लेनी चाहिये।
ऐरन तो समझदारी दिखाते हुए विशेषाधिकार के पहाड़ से उतर गये हैं।  लेकिन जो सांसद अभी भी विशेषाधिकार के कवच से खुद को बचाने की जुगाड़ में जुटे हैं, उनको बम धमाकों के शिकार परिजनों के खिलाफ भी शीघ्र विशेषाधिकार हनन नोटिस देना चाहिये जिन्होंने राजकुमार के खिलाफ नारेबाजी कर उन्हें अस्पताल से भगा दिया।

वैसे, टीम अन्ना को बेनकाब करने के लिये ऐरन जो अभियान चलाने वाले हैं उसके लिये शुभकामनाएं।  

Thursday 8 September 2011

तिहाड में बिग बॉस

मशहूर रियलिटी शो बिग बॉस का अगला संस्करण तिहाड़ जेल में फिल्माया जाना चाहिये। इन दिनों तिहाड़ जेल में जाने-माने लोग अपने दिन यूं ही निकाल रहे हैं। काफी बोर हो जाते हैं बेचारे। टीवी जगत और सरकार दोनों को उनकी बोरियत दूर करने के साथ-साथ जनता के मनोरंजन के बारे सोचना चाहिये। यदि बिग बॉस के आयोजक ऐसा प्रस्ताव रखें तो सरकार को तुरंत तिहाड़ जेल प्रशासन को सभी इंतजाम करने के आदेश दे देने चाहिये। 
यकीन जानिये कि इस रियलिटी शो की टीआरपी अन्ना आंदोलन और केबीसी से भी ज्यादा हो जायेगी। जो भी मनोरंजन चैनल इसका प्रसारण करेगा, उसके तो वारे-न्यारे हो जायेंगे। ढेर सारे विज्ञापन।  24 घंटे के खबरिया चैनल भी शो से जुड़ी तमाम खबरें ब्रेकिंग न्‍यूज के रूप में दिखाकर मुनाफा कमा सकते हैं। 
इस कार्यक्रम के स्टार कास्ट पर नजर डालते ही इसकी संभावित लोकप्रियता का अदांज लगाया जा सकता है। मधु कोडा, सुरेश कलमाडी, राजा और कनीमोझी जैसे भ्रष्‍टाचार में माहिर राजनेता चूंकी पहले से ही मौजूद हैं तो शो में उनके प्रवेश को लेकर कोई अड़चन नहीं है। रंगरंगीले शौक और दलाली पेशे वाले अमर सिंह के बिना तिहाड़ का रियलिटी शो अधूरा ही रहता। अपने राजनेता साथियों का साथ देने अमर सिंह ने तिहाड़ में प्रवेश पा ही लिया है। हो सकता है कि उन्‍हें इस बात की भनक भी लग गई हो कि तिहाड में एक रियलिटी शो होने जा रहा है। वैसे अमर सिंह की बॉलीवुड की अनेक अभिनेत्रियों से अच्छी जान-पहचान है जिन्‍हें कभी-कभार गैस्‍ट अपीयरन्‍स के लिये बुलाया जा सकता है।  
संसद में नोट लहराने वाले दो पूर्व भाजपा सांसद भी इन दिनों तिहाड़ में है। उनकी स्टिंग ऑपरेशन की क्षमता का दोहन बिग बॉस के आयोजक कर सकते हैं। हो सकता है कि दयानिधि मारन भी जल्द ही तिहाड़ पहुंच जायें।  सीबीआई ने सर्वोच्च न्यायालय को स्पष्ट कर दिया है कि उसने मारन को क्लीन चिट नहीं दी है। मारन की उपस्थिति भी काफी मजेदार रहेगी।
जैसे-जैसे सांसदों को जमानत मिलती रहेगी, वे कार्यक्रम से बाहर होते जायेंगे। चूंकि कई बड़े केस एक साथ चल रहे हैं तो आरोपी सांसदों का तिहाड में आना-जाना लगा ही रहेगा। 
राजनेताओं के अलावा शाहिद बलवा, संजय चन्‍द्रा और ललित भनोत जैसे कई हाई प्रोफाइल व्‍यावसायी और प्रशासक भी बिग बॉस की शोभा बढायेंगे। 
जहां तक इस शो की हॉस्ट का सवाल है तो इसके लिये भ्रष्टाचार के खिलाफ अन्ना की सहयोगी किरन बेदी एक बेहतर पसंद हो सकती हैं। वे तिहाड़ जेल की संचालिका भी रह चुकी हैं और शो के दौरान असंयमित बरताव करने वाले सांसदों एवं व्‍यावसासियों को अनुशासित भी रख सकती हैं। कुल मिलाकर भरपूर मनोरंजन। बस जरूरत इस दिशा में आगे बढने की है। 

Tuesday 6 September 2011

दलाल नहीं, राष्ट्रप्रेमी हैं अमर


आलोचकों का तो काम ही आलोचना करना होता है। पुलिस इतना शानदार काम कर रही है, फिर भी आलोचना। न करे तो भी आलोचना। पुलिस ने वोट के बदले नोट कांड में दलालों और घूसखोरों को गिरफ्तार कर लिया तो भी आलोचक खुश नहीं है। वे चिल्ला-चिल्ला कर कह रहे हैं कि ऐसा कैसे संभव है कि जिस पार्टी की सरकार को बचाने के लिये सांसदों को खरीदने की साजिश रची गयी, उसका एक भी सदस्य न तो नामजद हुआ है और न ही जेल की सलाखों के पीछे है। उन्हें कौन समझाये कि पुलिस के कामकाज में कांग्रेस पार्टी कोई हस्तक्षेप नहीं करती। अन्ना हजारे का ही उदाहरण ले लीजिये। अन्ना के अनशन से शांति भंग होने का डर था, तो पुलिस ने उन्हें तिहाड़ भेज दिया। इसी तरह अगर पुलिस को लगा कि अमर सिंह जी ने कोई गलत काम किया था तो उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। सरकार इन मामलों में कोई दखल नहीं देती।
  जहां तक यह सवाल है कि कांग्रेस के किसी भी नेता का नाम इस कांड में नहीं आया तो आलोचकों की बेवकूफी पर हंसी भी आती और रोना भी। यदि कोई स्वेच्छा से ही एक ईमानदार और कर्तव्यनिष्ठ सरकार को बचाने में जुट जाये तो कांग्रेस भला उसे क्यों मना करे। यह पुनीत कार्य झारखंड मुक्ति मोर्चा के सांसद श्री नरसिंह राव जी के समय कर चुके हैं।
यह अत्यन्न प्रसन्नता की बात है कि अमर सिंह जी के मन में श्रीमती सोनिया गांधी, राजकुमार राहुल और श्री मनमोहन सिंह जी के प्रति इतना सम्मान है कि वे उनकी सरकार को बचाने के लिये अपने हाथ जलाने को तैयार हो गये। इन हस्तियों का ऐसा सम्मान देश का हर नागरिक करे तो भारत को रामराज्य बनने से कौन रोक सकता है।
  अमर सिंह जी परमाणु समझौते की अहमियत भी तो जानते थे। उन्हें पता था कि अगर यह समझौता नहीं हुआ तो भारत के घरों में बिजली नहीं जलेगी, बच्चों को पढऩे के लिये लालटेन का सहारा लेना पड़ेगा और देश का औद्योगिक विकास रूक जायेगा। फिर अमर सिंह जी आम आदमी के लिये घडिय़ाली आंसू बहाने वाले वामपंथी दलों की तरह दोहरे मापदंड नहीं रखते। अगर सरकार विश्वासमत हासिल नहीं कर पाती तो देश को खर्चीले मध्यावधि चुनाव झेलने पड़ते। वोट मांगने वाला और वोट देने वाला दोनों कितने परेशान होते। अमर सिंह जी धर्मनिरपेक्ष भी तो हैं। अगर साम्प्रदायिक ताकतें जनता की भावनाएं भडक़ा कर चुनाव जीत जाती तो देश का कितना अहित होता?
  हकीकत यही है कि अमर सिंह जी कांग्रेस के लिये नहीं बल्कि राष्ट्र की तरक्‍की के लिये काम कर रहे थे। इतनी राष्ट्रवादी सोच के व्यक्ति को दलाल कहना अशोभनीय और असंसदीय है। आलोचकों को शर्म आनी चाहिये। अमर सिंह जी का तरीका भले ही कुछ गलत रहा हो लेकिन इरादा तो बहुत नेक था। इसके लिये कांग्रेस को अमर सिंह जी का आभार करना चाहिये और उनके प्रति सहानुभूति भी रखनी चाहिये। जहां तक कानून की बात है तो वह अपना काम करता रहेगा।
नोटों के बंडल कहां से आये, किसने किसको दिये, ये सब बातें फिजूल की है  और केवल जनता का ध्यान भटकाने के लिये पूछी जा रही है। धन का स्रोत पता लगाने से कहीं ज्यादा अहम है उन दो भष्ट सांसदों को सख्त से सख्त सजा दिलाना जिन्होंने सदन की गरिमा को तार-तार कर नोटों के बंडल हवा में लहराये। इससे अमर सिंह जी जैसे कांग्रेस प्रेमियों अर्थात राष्ट्र प्रेमियों को दिक्‍कत उठानी नहीं पडेगी।  

Monday 5 September 2011

निर्धन जन का धनिक तंत्र


अन्ना और रामदेव का आंदोलन क्या हुआ, देश का राजनीतिक  माहौल ही बदल गया। भ्रष्टाचार विरोधी गैर-राजनीतिक आंदोलनों ने हमारी सियासी जमात को ही संदेह के घेरे में ला दिया है। सडक़ पर चल रहा आम आदमी आज यह मान बैठा है कि वर्तमान केन्द्र सरकार के मंत्रिमंडल में ‘भ्रष्ट-रत्नों’ और ‘भ्रष्ट-विभूषणों’ की भरमार है, जिनमें से कुछ की तो तिहाड़ जेल में भी शाही मेहमान नवाजी हो रही है। पूरे देश में भ्रष्टाचार विरोधी माहौल बनने के कारण प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह जी के औपचारिक नेतृत्व में चल रही सरकार को भी यह ‘दिखाना’ पड़ रहा है कि वह पारदर्शिता में यकीन करती है। तभी तो आदरणीय मंत्रिमहोदयों को अपनी सम्पत्ति का ब्यौरा सार्वजनिक करना पड़ा है। घोषित सम्पत्ति में कितनी हकीकत है, इस पर यही कहा जा सकता है कि ‘यह पब्लिक है सब जानती है।’ सम्पत्तियों का यह विवरण भी कुछ वैसा ही है जैसा लोकसभा और विधानसभा चुनाव लड़ने में प्रत्‍याशी अपने खर्च के बारे में ब्‍यौरा देता है। कोई उसको सच नहीं मानता लेकिन कानूनी औपचारिकताएं तो पूरी करनी ही होती है।  
कुछ सम्मानित मंत्रियों द्वारा डेडलाइन गुजरने के बाद भी विवरण उपलब्ध नहीं कराने के कारण उन्हें आलोचना का शिकार होना पड़ रहा है। यह कोई लापरवाही या अवज्ञा नहीं है। उन्हें अपने सीए और वकील के साथ मिल-बैठकर सम्पत्ति का ‘उचित एवं स्वीकार्य’ ब्यौरा तैयार करने का मौका तो मिलना ही चाहिये ताकि किसी आरटीआई कार्यकर्ता का आवेदन उनके गले की फांस न बन जाये।
सवाल पूछा जा रहा है कि जिस देश की 40 प्रतिशत से ज्यादा आबादी गरीबी की रेखा के नीचे जीवन यापन करती है, उस देश के अधिकांश मंत्रियों को करोड़पति होने में नैतिक ग्लानि नहीं होती? अगर ऐसा भाव मन में आ जाये तो भारतीय राजनीति नेताविहीन हो जायेगी। कुछ अव्‍यावहारिक और कोरे आदर्शवादियों को छोड दें तो लोग अपनी सात पीढियों के पाप धोने के लिये ही तो राजनीति में प्रवेश करते हैं।
  एक पेशी के चार-पांच लाख वसूलने वाले धुरंधर वकील माननीय श्री कपिल सिब्बल जी की कुल सम्पत्ति 38 करोड़ रूपये है। कुछ दिन पहले तक योग की मार्केटिंग कर धन कमाने वाले रामदेव के नजदीकी श्री कमलनाथ जी की व्यक्तिगत सम्पत्ति लगभग 40 करोड़ रूपये है। लेकिन 25 कंपनियों में उनके 200 करोड़ रूपये से ज्यादा के व्यावसायिक हित होने के बावजूद उन्हें वाणिज्य मंत्रालय मिलने की समझ पर सवाल उठाये गये हैं। शंकालु प्रवृति वाले लोगों को समझना चाहिये कि इतनी कंपनियों के संचालन का अनुभव उन्हें व्यापार-वाणिज्य की बेहतर समझ देता है। देश की जनता इसका कोई फायदा न उठा पाये तो उनका क्या कसूर।
  केवल 12 करोड़ रूपये की सम्पत्ति के धारक परम सम्माननीय किसान नेता श्री शरद पवार की छत्रछाया में राजनीति करने वाले श्री प्रफुल्ल पटेल की संपत्ति करीब 100 करोड़ रूपये  है। श्री पवार को श्री पटेल पर नाज होना चाहिये कि चेला गुरू से आगे निकल गया। वैसे आलोचनाओं से बहुत उपर उठ चुके पवार साहब का भी जवाब नहीं, जितनी मेहनत वे अपने मंत्रालय और क्रिकेट की बेहतरी के लिये करते हैं, उससे ज्‍यादा मेहनत अपने सीए और वकील से संपत्ति  का ब्‍यौरा तैयार कराने में करवायी है।
 35 लाख रूपये धारक ए. के. एंटनी जैसे  राजनेताओं को तब तक मंत्रिमण्डल में रहने का कोई नैतिक अधिकार नहीं है जब तक श्री कमलनाथ, श्री चिदंबरम, श्री पवार, श्री सिब्बल और श्री प्रफुल्ल पटेल जैसे धनकुबेर अपनी मौजूदगी से देश के निर्धनों का दुख दर्द कम करने की कोशिश करते रहेंगे।

बहनजी के खिलाफ साजिश


हमारी जनप्रिय बहनजी सुश्री मायावती को अमरीका वाले बदनाम करने की साजिश रच रहें हैं। साथ में जूलियन असांजे नाम का एक पागल भी उनके साथ्‍ा हो गया है। आखिर मायावती जी ने इन पूंजीवादियों का क्या बिगाड़ा है? क्या प्रधानमंत्री बनने की इच्छा पालना अपराध है? स्वर्गीय श्री अर्जुन सिंह जी भी तो अपनी अंतिम सांसें गिनते गिनते डीएमके के मुखिया श्री करूणानिधि जी के पास प्रधानमंत्री बनने का आशीर्वाद लेने गये थे। श्री आडवाणी जी तो विपक्ष में बैठ कर भी प्रधानमंत्री बनने का ख्वाब लेते रहते हैं जिसके कारण उनका तो नाम ही पीएम इन वेटिंग हो गया हैं।  वैसे भी भारत जैसे ‘लोकतांत्रिक’ देश में जब श्रीमान देवगौड़ा और श्रीमान गुजराल जैसे नेता, जो अपने बलबूते शायद अगले जन्म में भी प्रधानमंत्री बनने की नहीं सोच सकते थे, कांग्रेसी बैसाखियों से प्रधानमंत्री बन गये तो बहनजी के प्रधानमंत्री बनने की इच्छा का इतना मजाक क्यों बनाया जा रहा है? वे पिछले पांच साल से प्रधानमंत्री बनने का केवल ख्वाब ही नहीं ले रही हैं बल्कि उसे पूरा करने लिये आवश्यक धनसामग्री भी इकट्टा कर रही है।
विकिलीक्स हमें बता रहा है कि बहुजनहिताय की भावना अपने दिल में हमेशा संजोने वाली हमारी बहनजी के कार्यकाल में उत्तर प्रदेश में भ्रष्टाचार संस्थागत हो गया है। दरअसल इन अमरीकियों की नजर में ही खोट है। यह कोई भ्रष्टाचार वगैरह नहीं है, यह तो हमारी राजनीतिक संस्कृति का अभिन्न अंग है। ये तो अन्‍ना जैसे फालतू बैठे लोगों ने भ्रष्‍टाचार को जबरदस्‍ती एक मुद़दा बना दिया। अगर अमरीकियों को भी उत्तर प्रदेश में सरकार बनाने के लिये आमंत्रित किया जाये तो वे भी मान जायेंगे कि भ्रष्टाचार को आत्मसात एवं अंगीकृत किये बिना वहां जनता की भलाई करना तो दूर, उसके बारे में सोचना भी संभव नहीं है।अहसानफरामोश श्री सतीश चंद्र मिश्रा जी को यदि बहनजी इतनी ही भ्रष्‍ट और निरंकुश लगती हैं तो वे बसपा में कर क्‍या रहें है। श्री मिश्रा जैसे सवर्ण नेता जिस थाली में खाते हैं, उसी में छेद करते हैं।
हमें बताया गया है कि हरदिल अजीज बहनजी ने एक मंत्री को बिना उनकी इजाजत के राज्यपाल से बात करने के लिये अपने सामने उठक-बैठक करायी। समस्या यह है कि अमरीकी लोग उठक-बैठक को सजा मान रहे हैं। उन्हें कौन बताये कि हमारे देश के तमाम स्कूलों में अनुशासन का यह एक सामान्य तरीका है। और महामाया साहिबा भी तो एक अध्‍यापिका रह चुकी हैं। यह तो उनकी विनम्रता, दयालुता और विशालह्यदयता है जो उस गुस्ताख और बद्तमीज मंत्री को मुर्गा नहीं बनाया गया।
अगर जनता के  दिलों पर राज करने वाली बहनजी ने अपने पसंदीदा सैंडल मंगवाने के लिये एक प्राइवेज जेट विमान मुम्बई भेज दिया तो इतना हो-हल्ला मचाने की क्या जरूरत है? अब क्‍या वे चप्‍पल और सैंडल पहनना भी छोड दें। सच्चाई तो यह है कि एक दलित की बेटी होने के कारण उन्हें ‘चार्टर्ड चप्‍पल’ पहनने के लिये परेशान किया जा रहा है। उत्तर प्रदेश की जनता ने उन्हें चुना है, इसलिये उनको यह तय करने का पूरा अधिकार है कि जनता की कमाई को कहां खर्च किया जाये।
रसोइयों की फौज खड़ी करने पर बहन मायावती जी की खिल्ली उड़ाना अमरीकियों की ओछी सोच का ही परिणाम है। क्या आदरणीय मायावती जी को कुछ खाने का भी अधिकार नहीं है। अमरीकियों को यह समझ लेना चाहिये कि अन्ना हजारे की तरह भूखे रहने का न तो बहनजी को कोई अभ्यास है और न ही ऐसा करने का कोई इरादा। भूखे पेट तो भजन भी नहीं होता, फिर वे तो दिन-रात दलितों के  उत्थान में लगी रहती हैं। सूख कर कांटा हो गई हैं।
अब क्‍या बहनजी ने कुछ गलत कहा कि इस असांजे को पागलखाने भेज देना चाहिये।

Sunday 4 September 2011

राजकुमार का जन्‍मसिद्ध अधिकार


सिरफिरे बूढ़े को रोकना होगा। नहीं तो वो हमारे राजकुमार के लिये सबसे बड़ा सिरदर्द बन जायेगा। आखिर हमारे राजकुमार ही तो अगले प्रधानमंत्री बनने वाले हैं। उन्हें रोकने की हिम्मत कौन कर सकता है? प्रधानमंत्री बनना उनका जन्मसिद्ध अधिकार है। फिर इस बात से क्या फर्क पड़ता है कि राजकुमार ने अभी तक अपनी नेतृत्व क्षमता का प्रदर्शन नहीं किया है? सभी लोग अभिमन्यु जैसे तो नहीं होते जो अपनी मां के गर्भ से ही बहुत कुछ सीख कर आ जाते हैं। वैसे ये तो बेचारे राजकुमार की किस्मत ही खराब थी जो वे उस दिन भारत लौटे जिस दिन अन्ना हजारे को गिरफ्तार किया था। मुझे तो उन लोगों की समझदारी पर हंसी आती है जो यह कह रहे हैं कि खुद राजकुमार को अन्ना से मिलने तिहाड़ जाना चाहिये था और विनम्र होकर उनके साथ ठंडे दिमाग से बातचीत करनी चाहिये थी। यह तो बड़ा ही बेतुका सुझाव हुआ? क्या देश का भावी प्रधानमंत्री एक आम अपराधी से मिलने तिहाड़ जायेगा? इससे तो भविष्य में सभी अपराधी  जेल में भूख हड़ताल कर राजकुमार से मिलने की जिद पकड़ बैठते।
कुछ कथित विश्लेषक यह कह रहे हैं कि राजकुमार दस दिन तक चुपचाप रहे और कुछ नहीं बोले। राजकुमार को क्या समझ रखा है? छोटे मुद्दों पर बोलकर बड़े नेता अपना समय बर्बाद नहीं करते। इसके लिये तो बकायदा मनीष तिवारी जैसे समझदार प्रवक्ताओं को नियुक्त कर रखा है। हमारे राजकुमार पर कटाक्ष किया जा रहा है कि अगर वे संसद में बोलने के बजाय चुप ही रहते तो ज्यादा अच्छा होता। ये तो नाइंसाफी है। अन्ना और उसके साथियों को तो जो दिमाग में आये वो बोलने की छूट है। लेकिन अगर देश का भावी प्रधानमंत्री लिखा हुआ भाषण भी पढ़े तो कुछ लोगों को वह राजनीति विज्ञान के किसी प्रोफेसर के लेख की नकल नजर आता है। हमारा पप्पू कभी फेल नहीं हो सकता।
 हमारी परम्पराओं से अनभिज्ञ संदीप दीक्षित जैसे नासमझ नेता ही अन्ना की टीम के  हौसले बढ़ा देते हैं। संसद में अपने लम्बे-चौड़े भाषण में दीक्षित फालतू की बातें करते रहे लेकिन राजकुमार के नाम का उन्होंने जिक्र तक नहीं किया। उनसे भी निपट लिया जायेगा।
 इसलिये अन्ना को भ्रष्टाचार से त्रस्त जनता से दूर रखने के लिये जैड सिक्यूरिटी प्रदान करने का फैसला किया गया है। हिन्दुस्तान में सभी राजनेताओं का यह ख्वाब होता है कि उनके साथ चार-पांच स्टेनगनधारी बॉडीगार्ड चलें। फिर अन्ना को जिद छोडक़र खुशी मनानी चाहिये कि उन्हें अंगरक्षकों की पूरी फौज दी जायेगी। सरफिरे अन्ना का कहना है कि उन्हें जैड सिक्यूरिटी नहीं चाहिये क्योंकि वे आम आदमी के बीच रहना चाहते हैं। यही तो समस्या की जड़ है। अन्ना को समझाओ कि अगर ‘आम आदमी का हाथ अन्ना के साथ’ हो गया तो फिर ‘कांग्रेस का हाथ आम आदमी के साथ’ नहीं हो पायेगा। यह किसी भी सूरत में बर्दाश्त नहीं है। हमारे राजकुमार उस खानदान के कुलदीपक हैं, जहां केवल प्रधानमंत्री ही जन्म लेते हैं।

ईशनिंदा के दोषी

अन्ना हजारे की जनलोकपाल मुहिम के समर्थन में देशभर में उतरे अनगिनत समर्थकों ने हमारे बुद्धिजीवियों की रातों की नींद उड़ा दी है, दिन का चैन छीन लिया है। उन्‍हें समझ में नहीं आ रहा हैं कि उपभोक्ततावाद के सुनहरे समंदर में डुबकी लगाने वाले शहरी इंडियन मध्यमवर्ग ने उस ठेठ देहाती बूढ़े आदमी को अपना ‘आइकॉन’ कैसे मान लिया है जो अंग्रेजी तो दूर की बात, हिन्दी भी ठीक तरीके से नहीं बोल सकता और दिन-रात सादगी की घिसीपिटी उबाऊ बातें करता रहता है। बुद्धिजीवियों का मानना है कि अगर दिल्ली और अन्य शहरों में उमड़ा जनसैलाब भाड़े की भीड़ नहीं था तो अवश्य वह भावनात्मक ज्‍वर की अतार्किक अवस्था में रहा होगा और दो-चार हफ्ते में वापस अपनी पुरानी अवस्था में लौट आयेगा। 
  उनके विचार में यह ‘दूसरी आजादी का तमाशा’ पूंजी-पुजारी इलेक्ट्रोनिक मीडिया, अमरीका-प्रायोजित सिविल सोसायटी और सत्ता-लोलुप भाजपा की सामूहिक जुगलबंदी से ज्यादा कुछ नहीं था जिसमें रामलीला मैदान को तहरीर चौक में तब्दील करने की खतरनाक साजिश रची गयी।  भारतीय जनतंत्र की वर्तमान शोषणकारी संरचना एवं स्वरूप पर प्रश्नचिन्ह लगाने वाले आमआदमी हमारे बुद्धिजीवियों की नजरों में फासीवादी हो गये हैं। बुद्धिजीवियों की इस जमात को अन्‍ना हजारे के इरादों में तो खोट नजर नहीं आती लेकिन उनके तौर-तरीके घोर अलोकतांत्रिक लगते हैं। कुछ महानुभाव यह कहते नहीं थक रहे हैं कि लोकतंत्र में कानून सडक़ पर नहीं, संसद में बनते हैं लेकिन इस बात का कोई जवाब उनके पास नहीं है जिस कानून को बनाने की जिम्मेदारी सांसद पिछले चार दशक से टाल रहे हों, उसे कहां बनाया जाये? 
  प्रतिद्वंद्वी सिविल सोसायटी द्वारा टीम अन्ना की खुली मुखालफत से उत्साहित कुछ सांसदों के बयानों में यह झलकने लगा है कि उनके खिलाफ कुछ भी बोलना ईशनिंदा से भी बड़ा पाप है। जो भी यह नाकाबिले बर्दाश्‍त गुस्‍ताखी करेगा, उसे सबक तो सिखाना ही पडेगा। न्‍यूज चैनलों के प्राइम टाइम को हड़पने वाले अन्ना से जुड़े तमाम ‘सरफिरों’ को विशेषाधिकार हनन नोटिस थमा दिया गया है। क्या अगला विशेषाधिकार हनन नोटिस अभिनेता आमिर खान को मिलेगा जिन्होंने केजरीवाल को सांसदों के घरों का घेराव का सुझाव दिया था? वैसे तो अन्ना को चेतावनी दे दी गई है कि अगर उन्होंने अपनी ‘जुबान पर लगाम’ नहीं दिया तो विशेषाधिकार का डंडा उन पर भी पड़ सकता है।